"सीता की व्यथा / मंजुश्री गुप्ता" के अवतरणों में अंतर
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मिला था मुझे
कितना मजबूत स्कंध
मर्यादा पुरोषोत्तम श्री राम का
चाहे फूलो की शैय्या हो
या काँटों की राह
मैं तो थी उनकी
मूक अनुगामिनी
किन्तु शोक
छलनामय पुरुष
साधुवेश में
कैसे न हो विश्वास
हर ली गयी
'फिर भी मन में थी ये आस
मेरे स्वामी निश्चय ही
उबारेंगे मुझे इस शोक से
करती रही
अश्रु सिंचित प्रतीक्षा
सुदीर्घ समय
कट गया
राम आये
मुझे उबारा
किन्तु पुरुष!
छलनामय ही रहा
या मैं ही करती रही
भोला विश्वास
क्यों लांछन मेरे सतीत्व पर?
राम की मर्यादा या अहम्
ऊंचे उठ गए
मेरी निष्ठा,पवित्रता और मूक प्रतीक्षा से
ली अग्नि परीक्षा
फिर भी मिला मुझे वनवास
यही था मेरे लिए
नियति का उपहार
युग बीत गए
आज भी सीतायें
देती जा रही हैं अग्नि परीक्षा
गर्भ से मृत्यु पर्यंत...
जाने कब बदलेगा ये समाज !