भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आग जलाने वाला आदमी / कुमार कृष्ण" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=पहा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

13:40, 22 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

पता नहीं क्यों
रेलगाड़ी में सफर करते
मुझे अक्सर याद आ जाते हैं दादा
नहीं देखी थी कभी दादा ने
बड़ी बोगी वाली रेलगाड़ी
अंग्रेज की हेकड़ी तोड़ने में एक बार
उठा डाली थी दोनों हाथों से
कई मन लोहे की रेल-पटरी
आँखों की रोशनी से उसी दिन
मरहूम हो गये थे दादा

बहुत छोटा था
तब जानता था मैं-
दादा के कम्बल में है कोई जादू
वह झट से सुला देता है बच्चों को
बहुत बार मैंने
रोती हुई बहन को

उसी कम्बल में सोते देखा था
मैं यह भी जानता था उस वक्त-
हुक्का पीते समय
शायद आग ले जाते हैं दादा अपने मुँह में
और छुपाकर रख देते हैं कहीं अन्दर चुपचाप
तब नहीं जानता था मैं
कम्बल और नींद का रिश्ता
दिन-भर रस्सियाँ बटते हुए
नंगे पाँव चलते रहे दादा
आँगन की गरमाहट महसूस करते हुए
अपने हाथों से मापते रहे मेरी उम्र

ज्यों-ज्यों बड़ा हुआ
मैं जानने लगा
एक मजबूत ताले का नाम दादा है
एक मजबूत पहरेदार
किसी वक्त भी पीट सकता है
अपनी मजबूत लाठी से
किसी भी आहट की हरकत को
सबसे पहले जागने वाले
सबसे बाद सोने वाले
इन्सान थे दादा
आग जलाने और दबाने का काम करते रहे वह
अपनी अन्तिम साँस तक।

सागर से लौटते समय
सागर के पास भी है अपना छोटा-सा-सागर
वह नहीं जानता नदियों की तकलीफ़
लहरों का आक्रोश
सागर का सागर
बादल और पृथ्वी की उम्मीद का नाम है
सागर के पास भी हैं- प्रेमशंकर- शोभाशंकर
जिनके पास मौजूद हैं
रिश्तों के बीज की अनगिनत बोरियाँ
राग की आग
गोविन्द द्विवेदी, वीरेन्द्र मोहन भी हैं उसके पास
वे जानते हैं अच्छी तरह
छोटे-छोटे क्षणों की गुदड़ी
पूरी तरह फट जाने पर भी
कहीं छुपाकर रखती है अपने भीतर
दोस्ती की गरमाहट
सागर के पास भी है एक शिव कुमार श्रीवास्तव
वह उम्र भर छुपाता रहा रंगों में सागर
बतियाता रहा शब्दों से चुपचाप
उड़ाता रहा अकेला एक पतंग
सिलता रहा लोकतन्त्र का फटा हुआ कुर्ता
सागर के पास हैं चिरौंजी की बर्फी
खोये की जलेबियाँ
तेन्दूपत्तों के आँसू
कुछ तिराहे, कुछ चौराहे
सागर के पास भी है एक छोटा-सा पहाड़
ताप के ताये हुए दिनों को याद करते हुए
देख रहे हैं त्रिलोचन उस पहाड़ पर
गुलाब और बुलबुल का सपना
डाकघर के पास रहने पर भी
बहुत कम खटखटाता है डाकिया
त्रिलोचन शास्त्री का दरवाजा
मैं नहीं दूँढ़ पाया सागर के पहाड़ पर
कोई छोटा-बड़ा तिरिछ
काट खाये थे जिसने बहुत पहले
उदय प्रकाश के पिता
मैं सोचता रहा लगातार-
भयानक तिरिछ के बारे में
त्रिलोचन शास्त्री के बारे में
आखिर एक-न-एक दिन
किसी को तो मारना ही होगा तिरिछ।