"खाना चित्ती के घर / कुमार कृष्ण" के अवतरणों में अंतर
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एक पाँव से पत्थर ठेलता बच्चा
दुनिया के बारे में नहीं सोचता
वह एक उम्मीद के साथ
हरकत में होता है
खाना चित्ती के सारे घर जीतने तक
वह
सड़क की ख़ामोशी के बारे में सोचता है।
बच्चा नहीं जानता
खाना चित्ती के घर
जीतने के बाद भी उसके नहीं होंगे
वह दुनिया की तरह गोल
पत्थर की चित्ती हाथ मे लेकर
लौटेगा घर।
पुश्त-दर-पुश्त खेला जा रहा है
खाना-चित्ती का खेल।
खड़िया के घर जीतते हुए
मैं जितना खुश था
मेरा बच्चा उतना ही खुश है
यह दूसरी बात है कि हम आज तक
दूसरों के घर में रहते हैं।
घर समेत बिकते हुए आदमी के बच्चे
स्कूल से लौटते वक़्त
जीतते हैं हर रोज
खाना चित्ती के घर
यहीं से आरम्भ होती है
हमारे हारने की शुरुआत।
बाबा आदम का खेल
सड़क, खड़िया और पत्थर की चित्ती के अतिरिक्त
माँगता है मजबूत पाँव
पाँव चाहे सड़क पर हों या
खाना चित्ती के घर में
वे हमेशा माँगते हैं ज़मीन
ज़मीन जीतने की जंग है
खाना चित्ती का खेल
जिसमें इस दुनिया का हर बच्चा शामिल है।