"चतुर्थ उमंग / रसरंग / ग्वाल" के अवतरणों में अंतर
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अवस्थानुसार नायिकावर्णन (दोहा)
अन्यसुरतदुखिता कहत, पुनि गर्विता बखान।
गमिष्यत्पतिका है बहुरि, गच्छत्पतिका जान॥1॥
प्रोषितपतिका भाखिकैं, बरनि खंडिता फेर।
कलहंतरिता बहुरि कहि, विप्रलब्धिका हेर॥2॥
उत्कंठिता बखानिकैं, वासकसज्जा होत।
स्वाधिनपतिका बरनिकैं, अभिसारिका उदोत॥3॥
आगमिष्यत्पतिका बरनि, आगच्छत्पतिका जु।
आगतपतिका बहुरि कहि, पंद्रह भेद जु साजु॥4॥
अन्यसम्भोगदुखिःता लक्षण
सुनि-लखि पिय हित वस्तु रति, चिन्ह किहूँ तिय माँहि।
दुखित होय तिहि कों कहैं, अन्यसुरतदुख्तिाहि॥5॥
हेतुलक्षिता दुखिता, यथा (कवित्त)
येरी मेरी चेरी तै हू हेरी है कि नाँहि कभूँ,
किस-मिस आवै बेरी-बेरी गोरी बालै री।
नज़र हसोंही ललचोंही पै छिपौंही करि
ताकै मेरे पिय त्यों ठगौरी कछु डालै री।
‘ग्वाल’ कवि ऐसी दुखदाइन कसाइन तें,
पाँइन तें सीस लों मैं बरत बिसालै री।
सूलन तें सौगुनी-सी, सूरत सतावै हाय,
सौति तें सहस गुनी, मोहि वह सालै री॥6॥
वस्तुलक्षिता दुखिता, यथा
पोई हुती पिय ने सो पास बैठि जोही हुती,
मोही हुती तापै कैसो भावहू, भरत है।
लखी सो परोसिन के कुच पै करत बास,
लै उसाँस ऊँचै रिस दाब उचरत है।
‘ग्वाल’ कवि येरी मेरी धुँआ की अरी किन तू,
हेरी मैं न ऐसी अदभुतता अरत है।
कैसे यह फूलन की माल तोहि सीरी लगै,
मोहि जारे डारै ऐसी ज्वाल निकरत है॥7॥
आज चंद सखी सों सखी ने यों सुनाई आय,
लखी बात एक तातें भई हौं भुलाई सी।
दूरबीन प्रीतम तिहारे की तिहारी सौंह,
देखि रही गोकुल की ग्वारि गहकाई सी।
‘ग्वाल’ कवि कहै ऐसें सुनत दुसह बैन,
नैन भरि आये जकी-थकी थहराई सी।
चकि परी, चौंकि परी, उचकि लचकि परी,
चुप परि गई, भई चित्त बहकाई सी॥8॥
सुखचिन्ह दुखिता, यथा (सवैया)
भेजी मैं पीय बुलावन कों, लगी बार बड़ी, गहि लीनी अथाइन।
जानत होयगी तू जिय में, कहि जानिहै का अतिभोरी गुसाँइन।
पीक लगी पलकैं कवि ‘ग्वाल’, सुगंध सनी कहै सारी सुभाइन।
तू भली नाइन मोहि मिली, उहाँ जात ही होय गई ठकुराइन॥9॥
वक्रोक्तिगर्विता लक्षण (दोहा)
रूप प्रेम संजोग गुन, धारत जहँ अभिमान।
कहै वक्र बिधि जो तिया, सो गर्विता बखान॥10॥
गुणगर्विता यथा (कवित्त)
ये री दई, तैने मोहि, भले घर ब्याहि दई,
देखी रीति नई-नई, ऐसी न जगत है।
वैसे जोंन भौंन तौ न दीपक बरावै कोऊ,
उलटी कहैं ह्याँ महताब सी जगत है।
‘ग्वाल’ कवि जो पै चाँदनी में आय बैठत हौं,
ततौ पै गुर नारि यह कौतुक पगत है।
कहाँ गई, कितमें है, कैसी भई, कहा करें,
बहू-बहू बोलि-बोलि ढूँढत रहत है॥11॥
आनन कों कंज जानि दिन में भमर घेरैं,
चंद जानि रैनि में चकोर पसरत हैं।
घूँघट कहाँ लों आठों जाम ही बनाये रहों,
राम की दुहाई रोम-रोग घबरत हैं।
‘ग्वाल’ कवि कहै इक और है अनोखो दुख,
ताहि कैसे भोगों न बिचार बिचरत है।
बेनी जानि ब्याली आली हाथ न लगावै कोऊ,
काली जानि कालीनाथ कुंडली करत है॥12॥
(सवैया)
मैं ही अनोखी न आई हूँ गौने ह्वै, ग्वारि गली की दिख्योई करै।
ये भल आई तो आई सही, ब्रजनारि सबै क्यों पिख्योई करै।
रीति भली कवि ‘ग्वाल’ सुगोकुल, देखिबेहू की मिख्योई करै।
सूरत मेरी की चेरिन ये, चितहेरिन चित्र लिख्योई करै॥13॥
प्रेमगर्विता, यथा (कवित्त)
ये री सौति वारी क्यों सकेरे रहैं रोस मो तैं,
हेरे रहैं बंक, जेरैं माल मेरी पोही कों।
पिय ही न नेरै रहैं, तोहि अलगेरै रहैं,
दृग तो तें फेरे रहैं, मोहैं क्यों न मोही कों।
‘ग्वाल’ कवि कहै मैन मेरै रहैं बहुबेरैं,
बात उरजेरे रहैं, मैं तो पचूँ तोही कों।
कही बहुतेरे रहैं, मैं हूँ चही तेरे रहैं,
छिन हू न तेरे रहैं, घेरे रहैं मोही कों॥14॥
(सवैया)
न्हायबे जाय नहीं जमुना, गम ना गुर लोगन की चित धारै।
देत सखीजन कों सरकाय, सु आपु ही मेरे सिँगार सिँगारै।
मानै न मेरी कभूँ कवि ‘ग्वाल’ न और सों प्रीति-प्रतीति पसारै।
है कोऊ ऐसिहू गोकुल में, जिहि कों पिय हू रहै कंठ को हारै॥15॥
संयोगगर्विता, यथा (कवित्त)
कासी लै करौत कै, हिमालै गरि आई तातें,
सदाई संजोगिनि रहत अंकलागिनी।
सीता राधे काहूँ कों वियोग भयो प्रीतम तें,
याकै तो न एकै निसि भई दुखजागिनी।
‘ग्वाल’ कवि पास की का, दूरि की लुगाइन ने,
मोहि द्वैज चंदकला कीन्ही इक वागिनी।
चारों ओर चरचा चलावत रहत मेरी,
ऐसी तिहुँ लोक में न देखी बड़भागिनी॥16॥
मो सी और दुखिया न होयगी जु गोकुल में,
कोऊ काहू बात कों न नैकों अरसावहीं।
में जो बन जाऊँ, गौरि पूजिबे कों गाँऊ गीत,
चहूँधा तें आय-आय मृग दरसावहीं।
‘ग्वाल’ कवि कहै राग दीपक गवाय मोसों,
सासुल-ननद दीप-दुति सरसावहीं।
जेठ दुपहर में गवावत मलार लाल,
ताही वारधारा धाराधर बरसावहीं॥17॥
गमिष्यत्पतिका लक्षण (दोहा)
इच्छा पर पुर गमन की, जाके पिय कों होय।
वह तिय विकल जु होन तें, गमिष्यत्पतिका सोय॥18॥
मुग्धा गमिष्यत्पतिका, यथा (कवित्त)
उर गई बात पीय पर पुर जायबे की,
मुर गई, जुर गई, विरहागि पुर गई।
घुर गई ही जो खेल, उमँग सों ढुर गई,
पुर गई पीर मुख, दुति ह्वै अउर गई।
‘ग्वाल’ कवि अलि सों बिछुरि गई, लरि गई,
नाँही हू निहुरि गई, नैन सों निचुरि गइ्र।
दुरि गई कोठरी में, मुरि गई सासै तकि,
जुरि गई लाज, लाजवंती-सी सिकुरि गई॥19॥
मध्या गमिष्यत्पतिका, यथा
आई कही प्यारे, प्रात जैहों परदेस प्यारी
येती सुनि भुनि गई, को सिराय सकै है।
चाही कै अकाल-बारि बरसाऊँ गाय करि,
रोपै गुरजन घन में न गाय सकै है।
‘ग्वाल’ कवि हाँ ही करिबे कों मन मानत न
नांही करिबे कों बैन नाहीं धाय सकै है।
जैसे मझधार नाव आँधी को गुबार आये,
वार आय सकत न, पार जाय सकै है॥20॥
प्रौढ़ा गमिष्यत्पतिका, यथा
प्यारे के पयान कों कमान-बान प्रोहित लै
गयो सुन कान, आन देखि सुभ घरी है।
तब तें मयंकमुखी मुँदी-सी, मली-सी भई,
मथी-सी, मसूसी-सी, मछरी-सी तरफरी है।
‘ग्वाल’ कवि सूखी-सी, सकी-सी, सेलसालिनी-सी,
सूल की सताई-सी, सरीर थरपरी है।
जल की घरी-सी भरी, ढरी-सी मनोज करी,
परी-सी पियारी, बलखाय गिरि परी है॥21॥
परकीया गमिष्यत्पतिका, यथा
काल्हि काऊ देस कों कन्हाई की जवाई ह्वैहै,
आइकै सुनाई काहू बात बतराइ में।
नेह सरसाई में बिरह आगि सुलगाई,
नाह तें डराई कहै ताप ने सताइ मैं।
‘ग्वाल’ कवि बीरहू न खाई, मुरझाइ परी,
खरी खिजियाई, पै न काहू की लखाई में।
आँखि भरि आई, जमुहाई लै छिपाई बाल,
पीरी परि आई, सो कहति माटी खाई मैं॥22॥
गणिका गमिष्यत्पतिका, यथा
चौथे दिन आज तें कहत तुम जाइबे कों,
आइबे कों करिये करार ताहि जचौंगी।
कल न परैगी प्यारे ललन तिहारे बिन,
पल न झपैगी, बिरहानल में तचौंगी।
‘ग्वाल’ कवि यातें दिये जाइये निसानी मोहि,
पानी धोय-धोय धूप चंदन में रचौंगी।
छला छिगुनी को नीको, हीरन कनी को यह,
जी को रखवार, तासों प्यार करि बचौंगी॥23॥
गच्छत्पतिका लक्षण (दोहा)
प्रिय बिदेस गमनत समै, तियै बिरह बढ़ि जाय।
गच्छतपतिका सो तिया, ग्रंथन में बरनाय॥24॥
मुग्धा गच्छत्पतिका, यथा (कवित्त)
आपने काहू देस तें नरेस को बुलायो बेगि,
सुनत सिधायो सींवा मौज के मिलक की।
नाथ के चलत वह बाल ने नवायो माथ,
हाथ में रह्यो ना हीय, हूक न हिलक की।
‘ग्वाल’ कवि कहै चामीकर सी चमक ही सों,
रेखहू रही न कहूँ, तन में चिलक की।
सीस जरतारी खेंचि, मुख पै सुकेस वारी,
सास के पिछारी खरी, थारी लै तिलक की॥25॥
मध्या गच्छत्पतिका, यथा
पीतम चलत तलबली सी मची है गेह,
देह खलबली सी, तिया कै त्यों रली-सी है।
दुति ही ससी-सी, सरसी-सी, सो खिसी-सी भई,
सासु तें टली-सी, राखै नज़रि ढली-सी है।
‘ग्वाल’ कवि बिरह बरी-सी, घबरी-सी तऊ,
चितवै चपी-सी तऊ चूसी-सी, छली-सी है।
मैन की मली-सी, लगा लंगर दली-सी, दीसी,
हेम की थली-सी, गई मुरझि कली-सी है॥26॥
प्रौढ़ा गच्छत्पतिका, यथा
सास अति बूढ़ी, ताकी फिकर फँसी है मोहि,
राखि जाउ बाँदी कोऊ, याकी रखवारी कों।
घर में जो चीज तज़बीज करि बाँटि दीजे,
संग लिये जाउ और उहाँ सुखकारी कों।
‘ग्वाल’ कवि साथ न हमें जो लै चलत प्यारे,
तो करो कबूल यह अरज हमारी कों।
सुंदर सुजान जान, जान जो लगे हौ जान,
जान लिये जाउ मेरी खिजमितगारी कों॥27॥
(सवैया)
जिन जाउ पिया यों कह्यो तुमसों, वो तुम्हें बतियाँ वह दागती है।
इहाँ चंदन में घनसार मिलै, सु सबै सखियाँ तन पागती हैं।
कवि ‘ग्वाल’ उहाँ कहाँ कंज बिछे, औ’ न मालती मंजुल जागती हैं।
तजिकै तहखाने चले तो सही, वै सुनी मग में लुवें लागती हैं॥28॥
परकीया गच्छत्पतिका, यथा (कवित्त)
औचक भनक आन कान में परी है पूर,
दूर चले कान्ह, सो सवारी आय रही है।
सुनत सरोजमुखी विष की बटी-सी खाय,
मिस की बनाय बात, चली हिय डही है।
‘ग्वाल’ कवि मीत सों मिलाई आँख जाय रही,
बैनन उचार्यो लखि भीर गहगही है।
नेह तें दही हों मैं जु, यों जताइबे को प्यारी,
सगुन बहाने सों दिखायो घीउ दही है॥29॥
गणिका गच्छत्पतिका, यथा
घर तें बिदा ह्वै बिदा होंन आये मोतें मीत,
गीत नाच बाजे सब दऊँगी बहायकै।
जात हौ तो जाउ, आउ गल लागि जाउ फेर,
करौ ना रुकाउ, आये सगुन मनायकै।
‘ग्वाल’ कवि खैर सों, खुसी सों हाँ पहुँचकर,
भेजियो सिताबी खत, लिखि या लिखाय कै।
आँसू ये बहाइ जैसे तुम्हें मिल जाय तो पै,
ऐसे लाय मुकता पुहाय दीजौ आयकै॥30॥
प्रोषितपतिका लक्षण (दोहा)
प्यारो गयो बिदेस कों, ताको बिरह सु पाय।
बाल बिकल नित रहहि सो, प्रोषितपतिका गाय॥31॥
मुग्धा प्रोषितपतिका, यथा (कवित्त)
कमलमुखी को कंत जब तें बिदेस गयो,
तब तें हमसे साँस जाँचै दुति हाल की।
दासी हू इहाँ की नहिँ जानत उदासी ताकी,
भासी न परत किहूँ रीत इक ढाल की।
‘ग्वाल’ कवि मैं तो दाइजे में संग आई हुती,
यातें लखि पाई बात, तन के हवाल की।
जैसे जठरागिनि न जाहिर दिखाई देत,
तैसे लाज-संपुट में बिरहागि बाल की॥32॥
मध्या प्रोषितपतिका, यथा
येरी मेरी बीर, जदुबीर गये जा दिन तें,
धीर न धरात, पीर नाहीँ टारी जात है।
ब्याह भयो, गोनों भयो, सोनों भयो दोनों मिलि
अब भयो रोनो, छाती नाहीँ फारी जात है।
‘ग्वाल’ कवि कौंन सों मैं कैसे कहि पूछौं बात,
बीते दिन-राति हाय औधि हारी जात है।
लाज तें न दाबी जाय बिरह-अगिनि दैया,
बिरह-आगिनि तें न लाज जारी जात है॥33॥
प्रौढ़ा प्रोषितपातिका, यथा
नाह बिन आली हिय दाहि दियो दामिनी ने,
दादुर दुसह करैं, घायल की घात ये।
बक बकवादी की फिराद करौं कापै अब,
पिक के निनाद तापै फोरै दिन-रात ये।
‘ग्वाल’ कवि सबनि के सब जी मुदित होत,
मेरो अब जीवो हैं कठिन फूले पात ये।
लद-लद जात मेह, बद-बद जात मोतें,
बदरा बिसासी हाय, हद बदजात ये॥34॥
(सवैया)
पिय जाय बिदेस बसे जब तें, तब तें विष-सी पिकी रागती है।
मति चंदन मेरे लगाउ सखी, ये चमेली चिराग-सी दागती है।
कवि ‘ग्वाल’ फुहारें फुहारन की, तन जारहिँ जारि सु भागती है।
बस बीजना ना करि, ना करि री! ये अँगारन सी लुएँ लागती हैं॥35॥
परकीया प्रोषितपतिका, यथा (कवित्त)
तन राखै पति पास, मन राखै मीत माँहि,
गन-गन राखै औधि सायत सुभाग सी।
ललचि-ललचि कहै मोसों कब ऐ है मीत,
प्रीत लाय गयो दूर, दीनी देह राग सी।
‘ग्वाल’ कवि जाकी चतुराई नहिँ गाई परै,
क्योंहूँ न जनाई परै जाके जिय लाग सी।
बाल उर पुर गुर दुर रही बिरहागि,
सहज परै न जागि पथरीली आग-सी॥36॥
गणिका प्रोषितपतिका, यथा
जाइकै बिदेस में न भेज्यो है सँदेस प्यारे,
सरसे अँदेस, हिय मेरो क्यों न हिलि है।
जब मनभावन के संग न सिधारो जिय,
अब बिरहागिन बरावन तो जलि है।
‘ग्वाल’ कवि कहै काऊ जोतिसी तें पूछि प्यारी,
प्रीतम उहाँ तें कौन दिन चलि खिलि है।
चित्त को दिवैया, नित हित को दिवैया वह,
वित्त को दिवैया, सुखदैया कब मिलि है॥37॥
खण्डिता लक्षण (दोहा)
अन्य नारि रति चित्त छद, लै पिय आयो गोइ।
रिस किहुँ बिधि सूचै जु तिहिँ, अरु सु खँडिता होइ॥38॥
मुग्धा खण्डिता, यथा (कवित्त)
जाम-जाम जामिनी की खातिर जमा न भई,
एक जाम दिन हू चढ़ाय अब आये हौ।
आज तो अधर बर अरुन तिहारे पर,
अंजन के दाग रहे लाग, लोभ छाये हो।
‘ग्वाल’ कवि ताही ताकि अति ही लजीली बाल,
पाल की पकी-सी होइ आई, का सुहाये हो।
मानो याहि खेलिबे कों गहबि गुपाल लाल,
गुंजन की माल मुख भाँति दाबि लाये हो॥39॥
मध्या खण्डिता, यथा
राति रहि आये पिय जावक लगाये भाल,
माल पेखि पाये, पाई पीर पर पीर है।
त्योंर तरराय सरमाय परै झुँझलाय,
चुप परि जाय चल्यो, छाये नैन नीर है।
‘ग्वाल’ कवि अंजन अधर तकि ताकी तरैं,
ए पै भयो अंजन (न) सिगरो सरीर है।
मानो चंपलतिका चहुँधा तें सु घेर-घेर,
फेर-फेर फेरी देत भौंरन की भीर है॥40॥
प्रौढ़ा खण्डिता, यथा
माल ये जनानी पैन्हि आये सो जनानी बात,
गात की न नैको सुधि, सूधे पग धारौ तौ।
दुपहर आये, दृग दुपहर से फूलि रहे,
आवत न लाज, ढीढ्यो उर तें बिसारौ तौ।
‘ग्वाल’ कवि भाल में महावर लगाय लाये,
बने हों महावर सिंदूर पौंछि डारौ तौ।
मुकुर-मुकुर जैहो फेरि मनमोहन जू,
यातें या मुकुर माँहि बदन निहारौ तौ॥41॥
(सवैया)
बलि भौंन मवास में साजी रहौ, जिन देहु उराहनो राजी हहा।
हिय में नखरेख न ताजी लगी, हिय मेरे दरार बिराजी अहा।
कवि ‘ग्वाल’ बिलोचन बाजी भरे, छबि प्यारी अनूपम छाजी महा।
जिनको जिन तें जिय राजी अरी, तौ करैगो कहो फिर काजी कहा॥42॥
परकीया खण्डिता, यथा (कवित्त)
चित-हित दैकै नित-नित्त देखो इत-उत,
मिलो जित कित तहाँ कहि जाउ आप तें।
आवेंगे जरूर सूर दूर भये गऊ धूर,
आओ सूर पूर माल बिन गुन जाप तें।
‘ग्वाल’ कवि कहै कौन मुख तें कहत बात,
कौन मुख लै कै इहाँ आवत अलाप तें।
ऐसे या मिलाप तें बिहारी बाज आई मैं तो,
खुसी हों खिलारी अब तेरे वे मिलाप तें॥43॥
गणिका खण्डिता, यथा
मानिक की मूँदरी कही ही काल्हि दैन हमें,
सो न अब दीखै कर, खाली कर लाये हौ।
बिन गुन माल उर डालकै उताल धाये,
साल करिबे कों ये सिँगार सरसाये हौ।
‘ग्वाल’ कवि धाइये गँवाइये सिहाइये ह्वाँ,
लाइये गरे सों, जिन रात को रिझाये हौ।
लोचन ये लौन लाल, पलक बिसाल लाल,
भाल करि लाल, सोच लाल बनि आये हौ॥44॥
कलहान्तरिता लक्षण (दोहा)
सहज हेतु किँहि तें तिया, पियै रुसाइ जु देय।
पुनि पछिताय चहै मिलन, कहलंतरिता भेय॥45॥
मुग्धा कलहान्तरिता, यथा (कवित्त)
पाँय परि हारे बिपरीत कों सु निसि माँहि,
तैने खिसियानो कियो नंद के दुलारे कों।
सिसुता तजैगी कब छुटिहै अनारपन,
जिस बिधि तेरी मति बिगरी मनुहारे कों।
‘ग्वाल’ कवि चिरौंजी औ’ किसमिस मिस दोऊ,
टारिये न इस रात प्रान रखवारे कों।
तिस पर कीनी रिस, बिष बेलि बोई बैठी,
अब दीखि परी, लाऊँ किस मिस प्यारे कों॥46॥
मध्या कलहान्तरिता, यथा
बसन उतारि धरि, हारन निकारि धरि,
दीपक दुवार धरि आज केलि काज कों।
ऐसे कहि पीय मेरे जिय में न आई बात,
अति सकुचाई गयो, करि इतराज कों।
‘ग्वाल’ कबि मैन की दुहाई पछिताई अब,
तू है सुखदाई जो बुलाबै ब्रजराज कों।
तौ निलाज लाज फारि डारौं, मारि डारौं, जारौं,
तन तें बुहारि डारौं ऐसी बेइलाज कों॥47॥
प्रौढ़ा कलहान्तरिता, यथा
एरी सतरंज में पिया ने चाल फेरी एक,
फेरन न दीनी लीनी पकरि सलूकों में।
बोहू (तो) रिसाय गयो, मोहू रिस आय गयो,
अब तो रिसाय गयो, सहौं हिय हूकों में।
‘ग्वाल’ कवि कहाँ तें बुलाय लाऊँ, पाय लाऊँ,
हँसि गल लाय लाऊँ, कलरव कूकों में।
हाय वह कुघरी कसाइन परै जो हाथ,
तो चबाई चींथ-चींथ चूसत न चूकों मैं॥48॥
परकीया कलहान्तरिता, यथा
मैंने कही मीत सों, मिलौंगी रात घात लाय,
मीत कही दिन कों सँकेत तू बनाय लै।
मोरी मति भोरी डरी, चोरी की लगन गन,
यातें बात मोरी गयो जोरी तन नाय लै।
‘ग्वाल’ कवि वाके बिन, अब है न कल पल,
मलन मनोज लायो, जौहर जनाय लै।
येरे मन मेरे मनमोहन मिलै जो कहूँ,
तो तू मनमोहन कों मुकुर मनाय लै॥49॥
गणिका कलहान्तरिता, यथा
मालकोस गायो मैं बतायो हो हिंडोर प्यारे,
झगरो मचायो मैं, रुसायो बिन बात री।
जिय पछिताय दियो, हाथन हिराय हाय,
करौं का उपाय, दाय कछु न दिखात री।
‘ग्वाल’ कवि आली तू उतालि दौरि देखि ल्याऊ,
ख्याली खुसहाली चित चाली छबि छात री।
धीरा है न मन औ’ न बीराहू चबायो जाय,
हीरा को दिवैया बिन (हीया) फट्यो जात री॥50॥
विप्रलब्धा लक्षण (दोहा)
पिय सँकेत तिय सों जु करि, आप उहाँ नहिँ जाय।
तिया पहुँचि दुखियाइ हाँ, वह जु विप्रलब्धाय॥51॥
मुग्धा विप्रलब्धा, यथा (कवित्त)
चाँदनी में चौपर मचैगी, चलि चंदमुखी,
बोले ब्रजचंद लता लौनी लहिबे लगी।
ऐसे सुनि, सखी लै सिधारी, भरी लाज भारी,
पहुँची अगारी की अगारी चहिबे लगी।
‘ग्वाल’ कवि उहाँ तो खिलारी है न, खेल है न,
एती कहि आँसू चले, पांसू दहिबे लगी।
मानहु महा अमंद, चंदै चीर-चीर करि,
धीर-धीर धारैं, जमुना-सी बहिबे लगी॥52॥
मध्या विप्रलब्धा, यथा
भोजन कै भामतो बुलाय गयो दुपहर,
ऐहौ वाहि मंदिर में मौज है मनन की।
यातें दोऊ देखि गईं, हाउ भाउ चाउ भरी
पी को ना मिलाउ भयो, परी छीन छिन की।
‘ग्वाल’ कवि दुचिती-सी, सोचै भई खिपती-सी,
बिपती-सी दीसी, बारी बिरह अगिन की।
काम कहै बैठी रहु, लाज कहै चलि पीछैं,
सासु जानि जैहै, बिन केलि, केलि दिन की॥53॥
प्रौढ़ा विप्रलब्धा, यथा
आयो बोलि चलें मैं चलौ हौं आगे पल में हाँ,
मानिक महल में, प्रभा की झलाझल में।
जान्यो हौ न छल मैं, जु प्रेम के पहल में, यों-
हाँस के हहल में, लग्यो है री उछल में।
‘ग्वाल’ कवि भई हौं अ-कलमें अकल में, जु-
जल में हू जरी जात बिरहा अनल में।
एक तो अबल में औ’ दौरी हलचल में,
सु कियो कौंन बलमें, भुलाई जो बिकल में॥54॥
परकीया विप्रलब्धा, यथा
गुरुजन वृंदन तें, बचि-कढ़ी फंदन तें,
चलि पग मंदन तें, अलि हू न जोही है।
बेगि ही बुलाय आयो, आप कहूँ और धायो,
भायो सो भयो न सब, सुधि मैं न खोही है।
‘ग्वाल’ कवि कहै मेरी कुमति-कसाइन नें
जानै का रसाइन सों, नेह-माल पोही है।
मोही गई हाय मोही, भयो दुखदाय मो ही,
मो ही कों न सूझी, मीत ऐसो निरमोही है॥55॥
उर में न मान्यो नाह, सोवत ही घर में त्यों,
कर में दुराव आई जेठे दुपहर में।
बंसी के हुनर में, बुलाई ही मुकर में, सु-
अंब के निकर में, मिलौंगो ही उधर में।
‘ग्वाल’ कवि वाही के विषमै अधर में हौं,
कर्यो है अधर में, न आयो है इधर में।
जौहर जहर में न, साँप की लहर में, सो-
सर में औ’ तर में, अतर में अगर में॥56॥
जा दिन तें थापनो कियो मैं प्रेम छपनो री
ता दिन तें लपनो भयो है री डरपनौ।
कँपनो सरीर भयो, झपनो जिठानिन तें,
खपना संकेत में (औ’) आइकै कलपनौ।
‘ग्वाल’ कवि कीयो का अकलपनो सपनो सो,
कौं लों जाप जपनो, कुढंग वाके ढपनौ।
नपनो भयो है मग, चपनो चबाइन तें,
तपनो भयो है, पै भयो न मीत अपनौ॥57॥
गणिका विप्रलब्धा, यथा
मेह की झरी में, बुलवाई घटा घुमरी में,
ठुमरी सुनौगी आउ बारहदरी में री।
करी मैं तैयारी, निकरी मैं पंक विषरी में,
देख्यो है दरी में न हरी मैं, यों खरी में री।
‘ग्वाल’ कवि बिगरौ मैं, जरी मैं, भभरी परी,
आज तो हरी मैं, कल मिलौं गुमरी में री।
बिना ही लरी मैं, लैहों मुकता लरी मैं अरी,
पौहों दुलरी में, तिलरी में, सुघरी में री॥58॥
उत्कंठिता लक्षण (दोहा)
समुझि कह्यो समयो हर्यो, उत्कंठित सो चाइ।
किहि कारन आयो न पिय, सो तिय उत्का गाइ॥59॥
मुग्धा उत्कंठिता, यथा (कवित्त)
जाके रोम-रोम लाज रहत सुदाम आय,
छाम तन आनन तें, धाम में उजेरो सो।
कंज से ललाम दृग देखिबे को ब्रजबाम
आवै दाम-दाम नित, करि-करि घेरो सो।
‘ग्वाल’ कवि राम की सों, रात मेरो नाम लैकै,
बोली वह भाम बाम, करि मन खेरो सो।
बीते तीन जाम, कोऊ थाम राखै काहू काम,
आये क्यों न स्याम, होत आवत सवेरो सो॥60॥
मध्या उत्कंठिता, यथा
नैनन में लाज को बसेरो बहुतेरो जैसो
घेरो है घनेरो तैसो, मदन अमंद री।
हेरो मोहि रात सखी, आय सुरझेरो करि
हेरो कहू नाहने से, आवै गति मंद री।
‘ग्वाल’ कवि आनन उजेरो किहुँ केरो लखि,
कर्यो मुठमेरो बन्यो चेरो ब्रजचंद री।
साँझ को सबेरो भयो, कौन उरझेरो भयो,
अब लों न केरो भयो, मेरो भयो फंद री॥61॥
प्रौढ़ा उत्कंठिता, यथा
क्यों न आये कंत, अलबेल में अलेल में ह्वै,
रहे रिस रेल में, कि बैठे भूप भेल में।
अमल अमेल में, कि प्यालिन उझेल में, कि-
रहे झुकि मेल में, कि झूलों की झमेल में।
‘ग्वाल’ कवि बातन की पेल में, पहेल में, कि-
बातन उचेल में, कि इलम सकेल में।
काहू मीत मेल में, कि हितुन की हेल में, कि-
चौपर के खेल में, कि लागै किहु केल में॥62॥
परकीया उत्कंठिता, यथा
छिपत न दिन हूँ तें, संग की सखीन हूँ तें,
गोकुल गलीन हूँ तें, आई घरी गिन री।
दिन की मुँदामुँद को कीयो हो करार विन,
आयो किन प्यारो जाके नैन हैं नलिन री।
‘ग्वाल’ कवि जिन-तिन बातन लगायो कहूँ,
या भयो मिलन, हर्यो मिलिबे को खिन री।
नरिन लुभायो, किधों किन्नरनि मन भायो,
परिन थमायो, कै सुहायो है सुरिन री॥63॥
गणिका उत्कंठिता, यथा
आयो क्यों न आज वह लाला रंग रतिवाला,
रूप को रसाला, सोम सरसै दुसाला में।
बाला कहि गयो दैन, बालाखाने माँहि मोसों,
ताको बोलबाला सदा रहत भुपाला में।
‘ग्वाल’ कवि कैधों मिल्यो ख्यालन को ख्याला,
आला कैधों सहाला भयो नाच-राग ताला में।
बस्यो चित्रसाला में, बिबस भयो प्याला में,
कि पाला में पग्यो है प्रेम काहू नवबाला में॥64॥
वासकसज्जा लक्षण (दोहा)
पिय ब आवत होंइगे, नितकृत करिकै हाल।
केलि सौंज जुत मग लखै, वासकसज्जा बाल॥65॥
मुग्धा वासकसज्जा, यथा (कवित्त)
कुंजन तें कंत की तयारी आइबे की जानि,
धारी जरतारी कोर कलित किनारी की।
सखिन सुधारी सेज, मेज मंजु मौजकारी,
लखत लजारी होत, ओट में किवारी की।
‘ग्वाल’ कवि चंद की उज्यारी, लखि हारी ताहि,
बीज का बिचारी सर करै चमकारी की।
आँख झपकारी, चढ़ी नींद की खुमारी भारी,
तऊ बैस वारी, बट जोवै बनवारी की॥66॥
मध्या वासकसज्जा, यथा
ग्वालन की रास तें, गऊन के निवास तें, जु-
ऐहैं अब कंत तंत आस तें ही आस तें।
ऐसे जिय भास तें, जु लाज के खबास तें
सु कहै न खबास तें, कि उठि जाउ पास तें।
‘ग्वाल’ कवि काम के उकास तें, (कवास) तें, जु-
पलंग सुबास तें, सज्यो री रति बास तें।
आनन उजास तें, बिकास तें, हुलास तें, जु
बातन बिलास तें, सु बैठो पिय आस तें॥67॥
प्रौढ़ा वासकसज्जा, यथा
कैसे चलबिचल रही हो होय, आली तुम,
उछल-उछल लग्यो, सब ही टहल में।
अमल कमल दल पलँग पसारि राख्यो,
असल गुलाब मेलौ चंदन चहल में।
‘ग्वाल’ कवि अतर लगाओ हल बल मेरै,
बल-बल जाऊँ, गुंधौ सुमन सहल में।
पावड़े मृदुल पर बादले उमल मल
ऐहै पी सरल आज, मेरे ही महल में॥68॥
परकीया वासकसज्जा, यथा
मेला की बहार कर, इत ही पधार कर,
दैहैं सुखसार कर, प्रीतम बिहार कर।
ऐसें जी बिचारकर, ननद सों रार कर,
माँदी हों अपार कर, सास सों उचार कर।
‘ग्वाल’ कवि पौरि कों बुहार कर, चार कर,
साँकर उतार कर, मुँदे से किवार पर।
दीपक निबार कर, नूपुर निकार कर,
मोती सेज डारकर, बैठी दृग द्वार कर॥69॥
गणिका वासकसज्जा, यथा
मीत अलबेला है सकेला को बँधैया आली,
मेला बगदैया इ जैहै खुसखेला में।
केला संग तरे खरे खौन में दुहेला भरि,
मेला करि कंद दूध किसमिस बेला में।
‘ग्वाल’ कवि ऐला लौंग अतर उमला करि,
पलंग नवेला साजि, मंदिर अकेला में।
होंस हित हेला, कामकेलि रंग रेला माँहि,
लऊँगी सुहेला लाल, बूँटीदार सेला मैं॥70॥
स्वाधीनपतिका लक्षण (दोहा)
प्यारो रहै अधीन जहँ, ता तिय कें जु हमेस।
स्वाधिनपतिका नाम करि, ताकों कहत बुधेस॥71॥
मुग्धा स्वाधीनपतिका, यथा (कवित्त)
आई अभी गौने कों न बैठत है, भाज-भाज,
सिकुर दराज जाय, खैवै हू के काज में।
काहू पे न होत इतराज की अवाज जाकी,
गाजकै हँसे न सखियाँ हू के समाज में।
‘ग्वाल’ कवि आज ही तें देखि जाहि नाज खात,
ह्वैके बेलिहाज़ संग डोल्यौ छबि छात में।
बाज आई पास तें, तिहारे ब्रजराज मैं तो,
करौं का इलाज, वह डूबी जात लाज में॥72॥
मध्या स्वाधीनपतिका, यथा
मेरी गोपिका को है खबास खास ऐसो अली,
पाँइ सावकास छिपि देख्यो मैं करास तें।
पीय पै बँधावै केस, पास दै सुवास वाहि,
बदन बिकास कों दुरावै बैंदी दास तें।
‘ग्वाल’ कवि दासहू तें होय न निकास काज,
सो करै सहास लाल हुकमी हुलास तें।
सास जब आवै, तब पास तें उठाइ देइ,
सरकत सास के बुलावत बिलास तें॥73॥
प्रौढ़ा स्वाधीनपतिका, यथा
रूप गहगहे में अनूप डहडहे में त्यों,
मन बहबहे में सदाई नेह नहे में।
रहे न मनोरथ निबाहति बहे में कछू,
कबहू सहे न दाग, बिरहा के डहे में।
‘ग्वाल’ कवि मद चुहचुहे लहलहे नैन,
उलहे अरुन डोरा मैन महमहे में।
चाह के कहे में नित, छबि के छहे में अहे,
बाल के कहे में, उभरे में लाल लहे में॥74॥
परकीया स्वाधीनपतिका, यथा
धोरैं है सदन जाय, छात पै निहारैं हैं सु,
खोरैं हैं फिरत कभूँ, काहू कों बहोरैं हैं।
बोरैं हैं न सैन, बात दूती सों बिथोरैं हैं न
मेरी रुचि औरें है, सुहित कों हिलोरें हैं।
चोरै है चित कै, कवि ‘ग्वाल’ रंग बोरै है न,
काम की करोरैं है, बिनोद की झकोरें हैं।
भोरैं हैं हमारे मीत, जोरैं है हमेस हाथ,
तोरैं हैं सभी तें, पै न मेरो कह्यो मोरैं हैं॥75॥
गणिका स्वाधीनपतिका, यथा
बड़े भाग धरै ताके ऐसो मीत हाथ परै,
कबहूँ न लरै, काहू बात पै न अरै री।
भाँवरी सी भरै, बैन उच्चरै सुधा-से खासे,
इतरै न काहू बिधि, दिन-रैनि डरै री।
‘ग्वाल’ कवि मेरी रुचि माफक ही ढरै-खरै,
पसरै बिनोद नित, नाम मेरो ररै री।
मोतिन की लरैं गरे डारत, दरद हरै,
हरै है हँसत कहूँ, सो वही करै है री॥76॥
अभिसारिका लक्षण (दोहा)
गवन चहै, लागै गवन, गवन जाय पिय पास।
या प्रीतमहिँ बुलावई, अभिसारिका प्रकास॥77॥
मुग्धा अभिसारिका, यथा (कवित्त)
सोंधे सों सरीर सब सौरभ के सार सानि,
सुमन सिँगार सीस सुखद मजेज पर।
सुबरन सींव, सुबरन की वजैया साँची,
सरम सितून सील, सुधा लवरेज पर।
‘ग्वाल’ कवि सोम सरसी-सी सु-ससी-सी, श्री-सी,
सीसा-सी सहज साफ, सची-सी सुतेज पर।
सास के सदन में तें, सुंदरी सरबी सदा,
स्याम के समीप सरकाय आवै सेज पर॥78॥
मध्या अभिसारिका, यथा
साँझ ही तें चाह-फंद फँसी जी पसंद जोकि,
बंदन करत काज बँधी लाज-बंद सों।
बोली सास-नंद बहू-भाभी जा सुछंद सोइ,
चली गति मंद नव सुंदर गयंद सों।
‘ग्वाल’ कवि भूषन अमंद बृंद बने बेस,
बिंदुहू सँवारो मग उमंग बुलंद सों।
पिय सुखकंद, ब्रजचंद नंदनंदन जू,
के पहुँची पलंग पै, भई सिचंद चंद सों॥79॥
प्रौढ़ा अभिसारिका, यथा
चामीकर चिलक तें, चौगुनो सो चाह्यो तन,
चंपक कों चाँखैं चढ़ि रही बाल-बृंद पै।
चौमुखे चिकारन तें, चपला चमंकन तें,
चंचला की चारुता तें, चर बहै चंद पै।
‘ग्वाल’ कवि चोवा चरचित चीर चुने चोखे,
चौसर चँवेली के चंपे के गुलीबंद पै।
चंद्रहार छोरै, चंद सखी त्यों चितै सों चितै,
चली चंद मंदिर कों, प्यारे ब्रजचंद पै॥80॥
आज बनवारी पै सिधारी बनवारी प्यारी,
कुमुद चकोरन के चैन चारु परि जात।
जितमें छबीली गरबीली चलै तितमें सु,
सौरभ सुभाय ही के पुंज बन भरि जात।
‘ग्वाल’ कवि रंग-रूप हद पद पारै तित,
सुंदरी कुसुंभ को सो रंग, अंग ढरि जात।
चंद तें सिचदं, मुख मृदु अरविंद हू तें,
चहूँधा मलिंदन को बृंद सो पसरि जात॥81॥
परकीया अभिसारिका, यथा
छिगुनी लों छरा छोरि, डारे छमकन वारे,
छरहरे छरा छाये, छतियाँ की फैल पै।
छात तें उतरि छित, छापे लों छुवावै पाँय,
छिन-छिन छीन लंक, लचकत गैल पै।
‘ग्वाल’ कवि छलकै छहर छलछंदन सों,
छाजत छनैवा नेह, बंसी के बजेल पै।
छपा में छपाकर छये पै छबि छामोदरी,
छरी लै छबीली छकी जात छली छैल पै॥82॥
गणिका अभिसारिका, यथा
बाजूबंद बेरखी की बिकस बिचार बीर,
बंदन बिदित बिंदु बेसर तयारी पै।
बीरी बिरचाय बास बासित सुबासन सों,
बिकसित बेली-सी, बिहँसि बैस बारी पै।
‘ग्वाल’ कवि बिबिध बिनोदन बलित बानी,
बीन में बिसार दबि लोचन खुमारी पै।
बेला बिथुराय बेस बाल बलदारन में,
बाल बीजुरी-सी बलि चली बनवारी पै॥83॥
(दोहा)
तीन भेद अब और हैं, स्यामा सुक्ला जान।
बहुरि दिवा अभिसारिका, लक्षन नाम प्रमान॥84॥
श्यामाभिसारिका, यथा (कवित्त)
नीलम के हार जालदार की बहार कर,
सारी सजी सोसनी सम्हारकै करार पै।
मृगसार बिंदु धार लियो है सुधार उन,
चीवा चारु चरचित कियो ही अगार पै।
‘ग्वाल’ कवि मंसा (है) बिहार की अपार पार,
ह्वै रही सवार भौंर-भीर अलगार पै।
अधिक अंध्यार कों निहार सुकुमार नारि,
बार मुख डारि, चली नंद के कुमार पै॥85॥
शुक्लाभिसारिका, यथा
चली ब्रजचंद जू पै चाँदी से चमकैं चीर,
चौहरी हिरावलि चहूँधा चमकौन है।
चीकनो सरीर चारु चंदन तें चरचित,
चौसर चवेली के चुने गरे लगौन है।
‘ग्वाल’ कवि चित्त में चुभी है चाह चाहक की,
चैन की (है) चख चौंप चंचल चित्तौन है।
चाँदनी सी चाँदनी में चंदै चितवत जात,
चंद यहि चितै कहै, यह चंद कौन है॥86॥
दिवसाभिसारिका, यथा
दामोदर लाल दिलदार मिलिबे के लिये,
दाम दुलरी तें देह साजी है सलूनी सी।
दिसि दिसि हरद दराज सम देखि छन,
दिन ही में दबकि चली है राह सूनी सी।
‘ग्वाल’ कवि दरद दराज है दुकूलन में,
दार्यों से दसन लाल अधरा पै चूनी सी।
दीप तें दुलाख गुनी दीपत दवागिनि-सी,
दम-दम दमकत, दामिनी तें दूनी सी॥87॥
(दोहा)
प्रेमा कामा भाषहीं, पुनि मत्ता अभिसार।
तीनहुँ तें इन ही बिषै, अन्तरभूूत बिचार॥88॥
काम प्रेम ये हेत हैं, सो सब भेदन माँहि।
याही तें इन तें पृथक, लिखि सकियत हैं नाँहि॥89॥
आगामिष्यत्पतिका लक्षण
पर पुर तें पिय चलन कों, सगुन जु परै जनाय।
खत संदेस पुनि हरषई, आगमिष्यतपतिकाय॥90॥
मुग्धा आगमिष्यत्पतिका, यथा (कवित्त)
चारिक दिनाँ तें रीति नई उनई है कछू,
कौंन यह बेदन भई है तनमई है।
आँखि-बाँह बाईं लई, फरकन बानि दई,
कई घरी बीत जात, येकैं ठीक ठई है।
‘ग्वाल’ कवि सुनई सखी ने सगुनई सब,
आबई बिदिसि तें बलम सुखदई है।
सुनत सिकुर गई, गरे सों निहुरि गई,
तरें कों नज़रि गई, चुप परि गई है॥91॥
मध्या आगमिष्यत्पतिका, यथा
आई यह पाती, प्रानप्रीतम की प्यारी लेहु,
छाती सों छुवाओ, भई बड़ी बरकत है।
लायहौं बचाय, लिख्यो यामें सुखदाय, चाय-
मिलत हौं आय, अब नाँहीं हरकत है।
‘ग्वाल’ कवि सुनत सरोजनैनी फूलि उठी,
नज़र निचोंही करि, तिरछें तकत है।
कौन तिथि, कौन बार, चलन लिख्यो है यामें,
ऐसे चहै पूछ्यो पर, पूछि न सकत है॥92॥
प्रौढ़ा आगमिष्यत्पतिका, यथा
बालम बिदेस तें चलैंगे, या चले हैं अब,
कैधों चले आये तातें आँगी दरकत है।
भोर ही तें काक वाक बरकत येरी अली,
पीठ हू की तनी, बिन तनी, तरकत है।
‘ग्वाल’ कवि नीबीहू कसी पै ढरकत जात,
भरकत जात अंग-अंग ररकत है।
फरकत जात बाँह, बाँई बरकत वाली,
फेर आँख बाँई, बिन फेर, फरकत है॥93॥
परकीया आगमिष्यत्पतिका, यथा
मीत के सदन आग लैबे कों गई ही बाल,
देह बिरहागि लाग दुरी दहती गई।
पाती परदेस तें पहुँचि परी ताही पल,
प्रीतम पठाई पेखि, मौन गहती गई।
‘ग्वाल’ कवि बाँची घरबारन नें जाँची साँची,
आवत है स्याम यह सुनि सहती गई।
पी गई खुसी कों अरु जी गई हिये में वह,
रूखी परती गई बधाई कहती गई॥94॥
गणिका आगमिष्यत्पतिका, यथा
आइ कही काहू, परदेस तें तिहारो मीत,
मोतिन की लरैं लिये, आवत छबी सी है।
मोहि मिल्यो मारग में, मैं तो चलो आयो बेग,
तो सों कहिबे कों कही कुसल सुबीसी है।
‘ग्वाल’ कबि कहै ससिबदनी सुनायो जब,
सौरभ भरी सी लै बीरी हू रची-सी है।
फूली-सी फली-सी फिरै, फहरत फैल-फैल,
लैबे के फिराक में, फितूर में फबी सी है॥95॥
आगच्छतपतिका लक्षण (दोहा)
आयो पीव बिदेस तें, द्वार अपार जु साजु।
तिय सुनि उमगै मिलन कों, आगच्छतपतिका जु॥96॥
मुग्धा आगच्छतपतिका, यथा (कवित्त)
कोऊ एक नारी दौरि, देखिकै पुकारी आय,
आइ है बिदेस तें सवारी बनवारी की।
ग्वालन तें, गोपन तें, गहकि-अहकि मिलै,
गली में चली है भली बात राहदारी की।
‘ग्वाल’ कवि आली कही, बदलो बसन बहू,
बहू बेसुनी (सी) करि, बैठी ओट द्वारी की।
सखी के कहे तें तो, न सरकी सरोजनैनी,
सास के कहे तें, सारी पहनी किनारी की॥97॥
मध्या आगच्छतपतिका, यथा
पौरि पै को पहरु पुकार्यो आये जदुबीर,
बीर की सों मोहि छाँहगीर चमकत है।
इतनी कहा-कही में, आ ही गये द्वार पर,
ग्वालन सों मिलत, न चित सरकत है।
‘ग्वाल’ कवि लाये परदेस तें पदारथ जो,
भीतर कों भजै, भई मौन बरकत है।
आलिन मंे छिपकै छबीली बाल चीजैं सब,
छाय-छाय छाती, छिन-छिन में छिकत है॥98॥
प्रौढ़ा आगच्छतपतिका, यथा
औचकाय मोहन बिदेस तें सिधाई करि,
द्वार में बिछाइ बैठे चौकी चांह भरभराई।
प्रोहित के पूजे पाँइ, पास के सों मिले धाइ,
मीठे बतराई दियो सबै सुख सरसाई।
‘ग्वाल’ कवि भामा-भौंन सखी सों बुलाइ चाइ,
कहै ला बुलाइ औ’ कबूतरी लों फरफराई।
बाहर सकै न जाय, घेरी कुलकानि आय,
मिलिबे कों अकुलाय, मछरी लों तरफराई॥99॥
परकीया आगच्छतपतिका, यथा
सहज सुभाय कही, काहू नें अजिर आय,
लोग गये लैन आगे, नंद के दुलारे कों।
आयो परदेस तें बजार लों पहुँचि पर्यो,
जसुधा के द्वार, ग्वार बजवैं नगारे कों।
‘ग्वाल’ कवि मीतागम सुनि सरकन चाहै,
एपै सास पास औ’ परोसै घरवारे कों।
हरिनी ज्यों जाल में फँसै तें फरफरै दैया,
तरफरै तीय त्यों तकन प्रानप्यारे कों॥100॥
गणिका आगच्छतपतिका, यथा
बाँदी आय बोली आज बासर बिनोद को है,
बाँटिये बधाइ रागरंग के अखारे पै।
बीबी मीत तेरो परदेस तें पधार्यो अबै,
पेख्यो मैं बजार, चढ्यो गज मतवारे पै।
‘ग्वाल’ कवि सुन यों सुनाये सुंदरी ने बैन,
दैन कहि गयो हो चंदहार वा चौबारे पै।
आवैगो कि आवै है कि आइ गयो पौरि पर,
देखो, अरी देखो, दौरि-दौरि, दर-द्वारे पै॥101॥
आगतपतिका लक्षण (दोहा)
पिय बिदेस तें किहुँ समै, आय मिलै परतच्छ।
आगतपतिका, भर्तृका, उभय नाम है दच्छ॥102॥
मुग्धा आगतपतिका, यथा (कवित्त)
बेधे कामबान के बिदेस तें बिहारीलाल,
आये निज बास में, निवास में रुचे से जात।
मात के परसि पाय, पूजन परम करि,
पलक बिताय चले, चाह सों कुचे से जात।
‘ग्वाल’ कवि फेर प्रानप्यारी सों मिले हैं जाय,
खिले हैं खुसी में दाग दिल के नुचे से जात।
बाल को कछूक हिय-कमल तो फूल्यो अलि,
ए पर बिलोचन-कमल सकुचे-से जात॥103॥
मध्या आगतपतिका, यथा
मोहिनी सों अली ने मुबारखी कही यों आय,
कहा बारि डारौं तेरी ये खुसनसीबी पै।
आये बनवारी ये बिदेस तें बिनोद भरे,
गौरि ने बुलाये बेगि रावरी गरीबी पै।
‘ग्वाल’ कबि एती कही, अलि अलगाय गई,
भई भेंट दोउन की, भरी चाह डीबी पै।
बिरह बरायो अंक, नज़र दिखायो बाल,
ए पै त्यौर नायो नाह, निरखत नीबी पै॥104॥
प्रौढ़ा आगतपतिका, यथा
पंकजमुखी को पर-पुर तें पधार्यो पीय,
धार्यो पग आय त्यों ही दुख तो अखिल गये।
होत ही नज़र चार, पूछै सुख-समाचार,
बार-बार बीचैं स्वेद सीमा से उझिल गये।
‘ग्वाल’ कवि रति-पति कीनी गति मति और,
रति करिबें कों दौरि, दोउन के दिल गये।
मिल गये अंकन सों, छिल गये दाग सबै,
हिल गये हित में, खुसी में खुलि खिल गये॥105॥
परकीया आगतपतिका, यथा
गेह के पिछार बाग, सघन अपार चारु,
तामैं मीत बोल्यो, पर-पुर तें जु आईकै।
ससिमुखी सास के समीप सुनि, सीरी भई,
बोली गौरी पूजिबे कों लाऊँ फूल जाइकै।
‘ग्वाल’ कवि ऐसे मिस करि, मिली मोहन सों,
मिली प्रीति-पंथ में, खिली खुसी मनाइकै।
बाल कों बरावत ही बिरह बिपीर जब
बाल ने बरायो अब बिरह बनाइकै॥106॥
गणिका आगतपतिका, यथा
बरस बिताय परदेस तें पधारे तुम,
हारे नैन देखि-देखि, भीजे रहे नीरा में।
पलहूँ परी न कल, बिकल भई ही रही,
तेरे बिन तेरी सौंह, चाब्यौ है न बीरा मैं।
‘ग्वाल’ कवि ऐसैं प्रीति मीत सों जताय करि
बोली सुधि ध्याइबे कों, चातुरी सों धीरा में।
हीरामनि सूआ सुनि बीरा आज घन दिन,
तामैं मोद मुकता मिल्यौ है मेरे हीरा में॥107॥
॥इति श्री रसरंगे ग्वालकवि विरचिते अवस्थानुसारपंचदशनायिकावर्णनं नाम चतुर्थो उमंगः॥