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"वनवास / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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कुन्ती समेत पांचों बारहो वरिषीया हो;
बन बन फिरैय युधिष्ठिर हो सांवलिया॥
मृग केर चाम पीन्हैय ब्रह्मचारी भेष धरैय।
वरिष एक लुकी छिपी रहैय हो सांवलिया॥
भूख से विकल भीमसेन बल बनमां हो।
दारुण विपद सिर ढोवैय हो सांवलिया॥
फूल सन कोमल दुरपदी सुकुमारी रामा।
कांट-पथर-मग चलैथ हो सांवलिया॥
बन बन डोलैय रामा घाम पतझड़वा हो।
बरसा शरद शीत सहैय हो सांवलिया॥
कंद मूल खोजी खाजी फल सारा तोड़ी तारी।
भूखलो उदर भरैय हाय हो सांवलिया॥
हाय! हाय! कत दुख बन बन भोगैय रामा।
बिधि गति लखियोन परैय हो सांवलिया॥
तेरहो बरीसिया ते भटकी भटकी रामा।
बन वास पूरा करी लौटैय हो सांवलिया॥
राज पाट मागैय तब पांचों भाई पाण्डव हो।
दुरयोधन करैय इनकार हो सांवलिया॥