"जंगल मौन है / अनुभूति गुप्ता" के अवतरणों में अंतर
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इंसान के
स्वार्थीपन को देखकर
जंगल मौन है-
कर रहा इंसान
अपनी मनमानी,
प्रकृति की वेदना को
न समझकर,
घने जंगल, बेहिसाब कट रहे हैं
इंसान के
लालची स्वभाव के चलते।
अब, क्या कहे
जंगल
शीतल हवा के झोंके भी
अपना रूख
बदलने लगे हैं
सब ताल-तलैया सूखने लगे हैं।
पशु-पक्षी भूखे-प्यासे
निर्जीव बेघर हैं
इंसान ने बेच डाले
उनके घर हैं।
हक्की-बक्की रह गयी है
एक नन्हीं-सी चिड़िया
कि, बताओ
जरा-सी मेरी आँख
क्या लगी
इंसान
पेड़ सहित
मेरा घोंसला भी
ले गये हैं।
तो बस-
बरबादी ही बरबादी
और
घटती हमारी आबादी
पीछे छोड़ गये हैं।
सूखे, पीले,
भूरे पत्तों जैसे
मरने को छोड़ गये हैं
देखो,
इंसानों की मूर्खता
हमें जंगलों से खदेड़कर
शहरों में बसने का
सह-परिवार
निमंत्रण दे गये हैं।