"सरहदें प्यार की / महेश सन्तोषी" के अवतरणों में अंतर
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स्पर्शों की अपनी सीमाएँ होती हैं,
बाँहों में बाँहें बँधती हैं, आकाश नहीं,
पर प्यार की कहीं कोई सरहद नहीं होती,
फैले तो, कम पड़ते हैं धरती भी, आकाश भी!
जिएँ तो पूरी उम्र भी कम पड़ती है,
प्यार को पूरा जीने को;
ओठों का अमृत नम ओठों से पीने,
मन का अमृत मन से पीने को,
होन को हो ही जाते हैं,
देहों से देहों के सतही सम्वाद,
पर लोग तरस जाते हैं,
कोई दिल छू ले, दिल छीने तो,
गा दे, कोई गा दे, सात स्वरों में अवरोहों से भरी
प्यार की विभावरी!
कम पड़ते हैं धरती भी, आकाश भी!
कुछ साँसे साँसों से होती हैं नित पूजित, सम्मानित
कुछ साँसें स्पर्शों की गिनती करती रह जाती हैं,
देहों के उत्सवों की यादें;
हम जितना चाहें दोहरा लें
पर मुरझाती देहें पल-पल पतझर की याद दिलाती हैं
पोर-पोर वासन्ती रागों से भर दें, जो वसन्त को स्वर दें,
कहाँ मिलेगी प्यार सरीखी बाँसुरी?
कम पड़ते हैं धरती भी, आकाश भी!