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"संपादन परिधानों का / महेश सन्तोषी" के अवतरणों में अंतर

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सिर्फ प्यार की जिन्दगी ही गुजरी तुम्हारे साथ
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सदियाँ लगीं हमें जिन संस्कृतियों को बुनने में, सँवरने में
बाकी ज़िन्दगी नहीं,
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सभ्यताओं का पत्तों, फूलों के आगे के परिधान देने,
फूलों से रिश्ते ही आते हैं, उम्र भर याद
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नग्नताओं को शालीनता उढ़ाने में,
सारी ज़िन्दगी नहीं!
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फिर भी विकास की सारी परतांे को चीर कर
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सभ्यता के इस धरातल पर, पर मोड़ पर,
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मन से माँसलताओं के जंगलों में सिमटकर रह गया
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आदिम आदमी!
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निजी ज़िन्दगियाँ निरन्तर बनती चली गयीं
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एक आईना अनावृत्त आचरणों का,
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ऐसी मानसिकताओं को फिर जरूरत ही कहाँ रही
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किसी सभ्य परिधान की?
  
एक दिन जब हमने ओस, आग,
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संगीत की मादक ध्वनियों, बहती रोशनियों में उभरतीं छवियों के बीच,
धूप, चाँदनी, पराग को एक साथ छुआ,
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रैम्प पर एक नियोजित होड़ चल रही है सारी सार्वजनिकताओं के बीच,
उस दिन हमें लगा जैसे हमारा प्यार से पहला परिचय हुआ,
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शालीनता अपना अस्तित्व खोज रही हैं इंच-इंच नपी चिन्दियों में,
जब हमारी बाहों में सिमटे से लगे, सवेरे, दोपहरियाँ, शाम,
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नग्नता रास्ते खोज रही है कपड़ों की कतरनों के बीच!
प्यार की परिधियांे में एक-एक कर खोने लगे,
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सचमुच परिधानों के निष्पाप संपादन में भी,
वर्जनाओं से भरे समय के आयाम,
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रहती है एक पुरुषजन्य पक्षपात की सामयिकी!
हमने साँसों में बाँट भी लिया, साँसों से बाँध भी लिया,
+
आधी दुनिया, औरतों के लिए,
वह अपरिमित सुख, जो हमें हमारे संचित प्यार ने दिया।
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कपड़े बुनने और सँवारने में लगी है,
 
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आधी दुनिया, औरतों के कपड़े उतारने या
मन के कई कोनों में बिखरी भी रही,
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उतरवाने को आतुर खड़ी है,
बहतीभी रही, बरसों कोई वासन्ती बयार,
+
यहाँ अब निरा, निजी, नैतिक या निन्दनीय कुछ नहीं है
एक स्थायी सावन ही था वो
+
यह खुल, सामूहिक नग्नताओं के सार्वजनिक
जिसकी फुहारें हमें भिगोती रहीं बार-बार,
+
अलंकरण की घड़ी है!...
जो प्राणों में स्थापित ही होकर रह गयी।
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ऐसी एक बहार का नाम थे तुम,
+
उम्र के पतझरों में
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निर्झर से भरी-भरी उम्र की शाम थे तुम,
+
सिर्फ प्यार की ज़िन्दगी ही गुजरी तुम्हारे साथ्
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बाकी ज़िन्दगी नहीं
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फूलों से रिश्ते ही आते हैं उम्र भर याद
+
सारी ज़िन्दगी नहीं!
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16:28, 4 मई 2017 के समय का अवतरण

सदियाँ लगीं हमें जिन संस्कृतियों को बुनने में, सँवरने में
सभ्यताओं का पत्तों, फूलों के आगे के परिधान देने,
नग्नताओं को शालीनता उढ़ाने में,
फिर भी विकास की सारी परतांे को चीर कर
सभ्यता के इस धरातल पर, पर मोड़ पर,
मन से माँसलताओं के जंगलों में सिमटकर रह गया
आदिम आदमी!
निजी ज़िन्दगियाँ निरन्तर बनती चली गयीं
एक आईना अनावृत्त आचरणों का,
ऐसी मानसिकताओं को फिर जरूरत ही कहाँ रही
किसी सभ्य परिधान की?

संगीत की मादक ध्वनियों, बहती रोशनियों में उभरतीं छवियों के बीच,
रैम्प पर एक नियोजित होड़ चल रही है सारी सार्वजनिकताओं के बीच,
शालीनता अपना अस्तित्व खोज रही हैं इंच-इंच नपी चिन्दियों में,
नग्नता रास्ते खोज रही है कपड़ों की कतरनों के बीच!
सचमुच परिधानों के निष्पाप संपादन में भी,
रहती है एक पुरुषजन्य पक्षपात की सामयिकी!
आधी दुनिया, औरतों के लिए,
कपड़े बुनने और सँवारने में लगी है,
आधी दुनिया, औरतों के कपड़े उतारने या
उतरवाने को आतुर खड़ी है,
यहाँ अब निरा, निजी, नैतिक या निन्दनीय कुछ नहीं है
यह खुल, सामूहिक नग्नताओं के सार्वजनिक
अलंकरण की घड़ी है!...