भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जाओ कल्पित साथी मन के / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
 
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|संग्रह= निशा निमंत्रण / हरिवंशराय बच्चन
+
|संग्रह=निशा निमन्त्रण / हरिवंशराय बच्चन
 
}}
 
}}
  

15:50, 26 जुलाई 2008 का अवतरण

जाओ कल्पित साथी मन के!


जब नयनों में सूनापन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था
तब तुम ही अवलम्ब हुए थे मेरे एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!


सच, मैंने परमार्थ ना सीखा,
लेकिन मैंने स्वार्थ ना सीखा,
तुम जग के हो, रहो न बंदी मेरे भुज-बंधन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!


जाओ जग में भुज फ़ैलाए,
जिसमें सारा विश्व समाए,
साथी बनो जगत में मुझसे अगणित दुखिया जन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!