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"इतनी सी गुजारिश / अखिलेश्वर पांडेय" के अवतरणों में अंतर

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16:33, 16 मई 2017 के समय का अवतरण

मुझे गालिब न बनाओ
गाली न दो!
मैं बड़ा कद्र करता हूँ उनका
मैं तो उनकी सफेद दाढ़ी का
एक बाल जितना भी नहीं
उर्दू मेरी मौसी (हिन्दी माँ) जरूर है
पर ठीक से जान-पहचान नहीं अभी
शेरो-शायरी भाती है (आती नहीं)
गजल सुनकर
वाह-वाह कह सकता हूँ
सुना नहीं सकता
माफ करो यारों मुझे
मैं गुलजार भी नहीं हूँ
सुना बहुत है उनको
पढ़ा भी है काफी
पर मतला और कैफियत
मेरे समझ से बाहर है
निराला, प्रसाद, बच्चन, त्रिलोचन भी नहीं मैं
सक्सेना, धूमिल जैसी जमीन नहीं मेरी
मैं किसी की छवि बनना भी नहीं चाहता
किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं मेरी
प्रेरक हैं सब मेरे
आदरणीय हैं सब
पर उनके दिखाये रास्ते पर चलकर
मैं अपनी मंजिल नहीं पा सकता
मुझे अपनी राह अलग बनानी है
आप मुझे साधारण समझ सकते हैं
पर दूसरों से अलग हूँ मैं
मैं नहीं चाहता किसी से संघर्ष
किसी को भयाक्रांत या
तनावग्रस्त करना
नीचे गिराना या कुचलना
करना जलील या ओछा देखना
मैं तो सबका मित्र बनना चाहता हूँ
मेरे पास जो थोड़ी सी दौलत है
उसे खर्च करना चाहता हूँ
लुटाना चाहता हूँ अपनी शब्द संपदा
इस बाजारी कहकहा में
नीलाम होना फितरत नहीं मेरी
मैं शब्दों का सुगंध फैलाना चाहता हूँ
विचारों को रोपित करना चाहता हूँ
आपके कोमल मन की धरालत पर
मैं अब भी इन बातों पर
विश्वास करता हूँ कि
हवा शुद्ध हो न हो
प्रेम अब भी सबसे शुद्ध है
हम अपनी मूर्खतापूर्ण इच्छाओं से
धोखा भले खा जाएं
खुद पर भरोसा हो तो
प्रेम में धोखा नहीं खा सकते
आप जानकर भले ही चकित न हों
पर सच यही है कि
धरती की शुद्ध हवा
इसलिए कम हो गयी क्योंकि
हमने प्रकृति से प्यार करना कम कर दिया
इसलिए मित्रों!
मैं कहता हूँ-
हवा को हम शुद्ध भले न बना पाएं
प्रेम तो शुद्ध करें
यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे
सबकुछ सहज ही शुद्ध हो जाएगा
अगर शुद्ध होगा
हमारा अंतर्मन
हमारा वातावरण
हमारे विचार
हमारे कर्म
हमारे व्यवहार
तो बची कहां रह जायेगी
गंदगी!
मेरा मानना है-
किसी के पीछे दौड़ना छोड़ो
खुद से मुकाबला करो
खुद के ही बनो दुश्मन
और रक्षक भी
रोज मारो खुद को
रोज पैदा हो जाओ खुद ही
अहं का पहाड़ आखिर कब तक
खड़ा रह सकता है
खुद पर काबू पाना सबसे
आसान काम है और सबसे कठिन भी
यह जानते हैं सब
फिर आजमाने में हर्ज क्या है!