"क्षणिकाएँ / सपना मांगलिक" के अवतरणों में अंतर
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1
पति ने पत्नी के राज में
बस इतनी सी खता की
माँ - बाप के ही घर में
माँ - बाप को जगह दी।
2
रुपया भी बड़ा
रौब जमाता है
अमीरों की जेब में
खनखनाता है
और गरीबों को देख
भिनभिनाता है।
3
आज नहीं तो कल
वो वादों से टूटेंगे
हम भी तो नेता हैं
अच्छी तरह से लूटेंगे।
4
वहशियों के सींखचे में
लड़की बनी कबाब
खींसे निपोर कहे कानून
दुष्कर्मी
नाबालिग है जनाब।
5
सब्र का इनदिनों
निकल रहा है
कडबा फल
जो करना है
आज ही कर लो
न हुआ है
न होगा कुछ कल।
6
पुरुष कहे
सुन अबला
तू प्रकृति
मैं ईश्वर
मैं अमर तू नश्वर
मैं निडर
तू डर –डर के मर।
7
कलियुग में
आती नहीं
उन तक कोई आंच
दो और दो को जोड़कर
जो जन करते पांच।
8
सुन मृत किसान को
मुआवजे की घोषणा
पत्नी किसान से गिडगिडायी
सुनो जी, बच्चों को
अब भूख से मुक्ति दिला दो
जीते जी न खिला सके
मरके ही रोटी खिला दो।
9
सभा में मंथन करें
मुर्गा छाप सब बम
आदमी ही आतिश हुआ
अब क्या करेंगे हम?
10
चींटी से हो शुरू
हाथी बन जाती है
छोटी सी एक बात
बातों – बातों में
बे बात बढ़ जाती है।
11
जिनकी मुठ्ठी में
फंसा दिख रहा गोश्त
लोग बनाते उन्हीं को
आजकल अपना दोस्त।
12
सिंहासन भी काँप उठा
देख मामला अद्वीतीय
अन्याय रहे हैं कर
न्यायधीश विक्रमाद्वितीय।
13
न तिल है न ताड़ है
मुद्दा टिकट का है
चमचे बिछे पैरों में
सुप्रीमो चने के झाड है।
14
ऊँगली चाटते नेताजी बोले
खाने में आया स्वाद निराला
जरा बता तो बहुरानी
तूने क्या मसाला डाला?
नैन मटकाते बहु बोली
घोटाला ही घोटाला।
15
हिंदी के सिपाही ही
करवाते हिंदी तमाम
गुड मोर्निंग -गुड नाईट कहें
भूलके सादर प्रणाम।
16
नेताओं को लग गए
बैठे बैठे रोट
जात-धर्म के नाम पर
हर दफा ही झटकें वोट।
17
जो रिश्वत के कर रहे
आये दिन स्टिंग ऑपरेशन
ले रिश्वत उन्हें बंद करें
भाड़ में जाए नेशन।
18
जिसकी मूंछ में ताव है
उसी की बस आब है
बाकी मुंह बिचका फरमाते
भैया, जमाना खराब है।
19
मशीन के संग
वक्त बिताते
जमीर इतना सो गया
अच्छा –भला था
कल का आदमी
आज खुद मशीन हो गया।
20
अंगरक्षकों की फ़ौज
और चमचमाती कार
चमचे जूते चाटते
कहें उन्हें सरकार।
21
नौकरी से लौटा पति
पत्नी पर झुंझलाया
बोला मैं गधे सा कमाता हूँ
तुम खूब मजे की उडाती हो
बीवी हँसके बोली
तभी तो तुम नौकरीपेशा
और मैं गृह मंत्री कहाती हूँ।
22
आज उसी की पूछ है
है जिसकी पौ- बारह
कड़के भटके फिर रहे
बिना पूँछ आवारा।
23
नयी पौध के देख रंग
आया याद अतीत
सोच बुढापे की लाचारी
जवानी हुई भयभीत।
24
कलदारों पर नाच रहे
बनके बाबू नट
टूटी हड्डी पसलियाँ
फूटा जब मधु घट।
25
तन जोगी भेष धरें
उमड़े मन में काम
ऐसे बगुला भक्त ही
बनते आसाराम।
26
जिन पूतों को खिला रहा
बाप मेवा और लीची
छल जाएगा बाप को
वो इंद्र समझ दधीची।
27
मन - मस्तिक
निरंतर द्वंद
हो न हो, जरूर
है इनमें भी कुछ
घनिष्ठ सम्बन्ध।
२८
भाप सी स्वच्छन्द उडती
बनती है जब बादल
स्वभानुसार बरसाती है
नेह संपदा टूटकर
समा जाती है सागर में
भुलाकर अपना अस्तित्व
क्रोध के ज्वार में सिन्धु
फैंकता है कभी बाहर
और शांत होने पर करता है
पुन:मिलन की प्रार्थना
छला जाता है सिन्धु द्वारा
नित्य ही उसका स्त्रीत्व
२9
हकीकत की धरा पर
कब तक यह टिक पायेंगे?
आकांक्षाओं की बेल नाजुक
लोग कुचलेंगे, रौदेंगे, दबायेंगे
ओस भीगे, शोख, चटकीले
दिव्य सुमन कल्पनाओं के
ये आकाश कुसुम से सपने
क्या सच कभी हो पायेंगे?
30
निकल नहीं रहे आंसू
घुट रही हैं चीखें कंठ में
चीख चिल्ला रही है
पर फडफडा रही है
सैयाद की कैद बुलबुल
मगर कुछ कर
नहीं पा रही है
सोचती एक जुल्म है
मेरी विवश ये जिन्दगी
कौन हूँ मैं?
क्या है अस्तित्व मेरा
संगिनी या बंदिनी?
31
छल से या बल से
कीचड़ से या कमल से
ख़ुशी से या गम से
झूठ से या दंभ से
सिंह से या सियार से
दुश्मन से या यार से
सूरज से या चाँद से
वृक्ष से या छाँव से
शहर से या गाँव से
हाथ से या पाँव से
गीता से कुरान से
हर शय हर इंसान से
इस मतलबी जहान से
अच्छा या बुरा मिला
ले लिया सबक मैंने
जो भी जिससे मिला