भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गाछ गॉव के / प्रदीप प्रभात" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप प्रभात |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:04, 5 जून 2017 के समय का अवतरण
आपनोॅ गॉव रोॅ ऊ बरोॅ के गाछ
आरो आपनोॅ गॉवों के आदमी मेॅ
फरक कोनची छै?
वरोॅ गाछी तर चल्लोॅ जा
तेॅ गरमी के भीषन शैंदी मेॅ भी
वेॅ स्नेह सेॅ सराबोर करि दै छै
जेना आपनोॅ गॉव रोॅ आदमी
दूर-दराज आकि परदेशों मेॅ मिलला पर
जकड़ी लै छै आपनोॅ बाहीं मेॅ
आरो भींजी जाय छै ऑख
दोनों चुपचाप, अनुभव करै छै
गाछी के छॉव।
चाहे ऊ कोनोॅ जाति के रहेॅ।
जात-पात सब भुलाय केॅ
छाती सेॅ छाती लगाय छै।
जेना गाछी नै देखै छै कोनोॅ जात।
सबकेॅ दै छै छॉव, सबकोॅ दै छै प्यार।