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जितनी करुणा हो, उड़ेल दे, तू स्वर की धारा में।
वाणी को चीत्कार बनादे, इस जलती कारा में।
युग शंकित है आज सभ्यता ऐसी फँसी भँवर में;
कालकूट का फेन तैरता है, अब लहर-लहर में।
सृजन स्वयं स्वागत करता है, महा प्रलय के स्वर में।
मानव की उपलब्धि खड़ी है, ले विनाश को कर में।
युद्ध-लिप्सु दानव प्रवृत्ति, घहराई, भू-अम्बर में;
राजनीति की कुटिल कामना, छायी है, कवि-स्वर में।
तेरी गिरा शक्ति रखती है, तमासा तट के कवि की।
अनय तिमिर जो क्षार कर सके, तुझ में क्षमता रवि की।
आत्मा का आक्रोश जगा फिर तू सोये प्राणी में;
मानवता का वधिक हँस रहा, शाप जगा, वाणी में।
चुप क्यों ऋषि की गिरा, अनय पर और शान्ति क्रन्दन पर।
आज अग्नि के कण बिखेरता, कोई चन्दन बन पर।
उमड़े भू पर फिर से, तेरी स्वर-गंगा कल्याणी;
परा और अपरा तक पहुँचे, मुक्त बैखरी वाणी।
”कवि की दृष्टि क्रान्त दर्शी है“ मिथ्या बना कथन है।
स्वर के कोलाहल में कोई दिखती नहीं किरन है।
राजनीति के विज्ञापन का साधन नहीं ऋचायें;
बुझ सकती हो आग मंत्र से तो फिर चलो बुझायें।
मानवता के आर्त नाद पर युग पुकार फिर जागे।
अन्तरिक्ष-भेदी आत्मा का चीत्कार फिर जागे।
वाणी की साधना स्वरों में क्रीड़ा नहीं बनाओ;
आज शान्ति का साम गान, गाओ कवि मेरे गाओ।