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"भाग्यशालिनी / कस्तूरी झा 'कोकिल'" के अवतरणों में अंतर
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कथा विरह केॅ अंतहीन छै,
कहाँ सेॅ शुरू करियै जी?
मोॅन पड़लेॅ छै, उधेड़ बुन मेॅ
केकरा पहिनें लिखिये जी?
रंग-रंग बात उठै छै मोॅन में
टपकै छै आँखीॅ सेॅ लोर।
नीन निगोड़ी भागी जाय छै,
उठतेॅ बैठतेॅ होय छै भोर।
तीसोॅ दिन येन्हैं बीतै छै,
केकरा कही सुनैबै जी?
लाज गरान अलगे लागै छै
कत्ते लोर छिपैबै जी?
कखनीं सुतबै, कखनीं जागबै?
ई तॅ कहना मुश्किल छै।
कखनी नहैबै, कखनी खैबैं?
ई बतलाना मुश्किल छै।
सुबह, दुपहर, सांझ बीतै छै,
नैं छै कोनोॅ लिखलॅ काम।
रात डाकिनी हपकै छै जी
मूहों सेॅ निकलै हे राम।
तोहें तेॅ भवसागर तरलेहॅ
छोड़लेहॅ यहाँ पति-परिवार।
भाग्यशालिनी सदा सुहागिन,
महिमा गाबै छै संसार।
31/07/15 अपराहन साढ़े चार बजे