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"रिश्तों के भंवर में / मनोज चौहान" के अवतरणों में अंतर
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रिश्तों के नाज़ुक धागों में
पड़ जाती हैं गिरहें
अक्सर
ग़लतफ़हमी की
या फिर अहम के
हावी हो जाने से।
नहीं चाहता त्याग देना
कोई भी
निज अहंकार को
जड़ होते चले जाते हैं रिश्ते
गुजरते हुए बक्त के साथ।
चाहता है इंसान
सहेज कर रखना चंद रिश्ते
हमेशा ही
मगर वो अक्सर
छूटते चले जाते हैं
उर्जा विहीन सा कर जाते हैं
जीवन को।
बनते, छुटते और उधड़ते
रिश्तों के भंवर में
ता उम्र
घूमता रहता है इन्सान
चहुँ ओर
कोल्हू के बैल की मानिंद।