"राहगीर और पायदान / मनोज चौहान" के अवतरणों में अंतर
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पड़े रहते हैं स्थिर
किसी नाले या खड्ड1 के पानी में
पंक्तिबध्द पत्थर
लड़ते हैं हर बार
बहाव के आवेग से
करवाते जाते हैं पार
हर गुजरने वाले को
बिना किसी क्षति के।
मसले जाते हैं हर बार
अभिलाषाओं के पावँ तले
झेलते हैं मार
प्रतिकूल परिस्थितियों की
मगर निभाते जाते हैं अपना धर्म
शायद! आदतन ही......!
समाज में भी होते हैं
कुछ ऐसे ही शख्स
जो बनते हैं हमेशा ही पायदान
बाधित और मुश्किल राहों पर
लगाते हैं पार
स्वार्थी एवं मौकापरस्त राहगीरों को।
मगर कर दिए जाते हैं
उपेक्षित हर बार
इस्तेमाल किए जाने के बाद
रहते हैं वे
भीतर समेटे
किसी गहरी पीड़ा को।
फिर भी
राहगीर और पायदान दोनों ही
नहीं बदल पाते
अपनी नियति।
ठीक उस कहानी के
साधु की तरह
जिसमें कि बहने से बचाया गया बिच्छू
नहीं छोड़ता डंक मारना
और न ही कभी रुकते
उसे बचाने वाले हाथ!