भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"माँ / केशव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 50: | पंक्ति 50: | ||
अपने लिए एक सवाल | अपने लिए एक सवाल | ||
युग-युग से | युग-युग से | ||
− | माँ का यही | + | माँ का यही हाल। |
</poem> | </poem> |
16:30, 26 जून 2017 के समय का अवतरण
माँ अपने अँधेरे को
कहती नहीं
सुनती है
फिर हमें उससे दूर रखने के लिए
चुपचाप
सुबह का सपना बुनती है
माँ
हमारी तकलीफ में
उपस्थिति रहती है
अपनी तकलीफ से मोहलत लेकर
हमारी दुनिया में
माँ के अलावा भी
और बहुत कुछ
माँ की दुनियाँ में
सिर्फ एक औरत
सदियों से
हमारे सिवा
माँ की दहलीज़ हम
जिसे लाँघती नहीं वह
सपने में भी
हमारे लिए
आँगन
जिसमें खलते-खेलते
एक दिन हम
भीड़ में शामिल हो जाते अचानक
माँ
नहीं होती भीड़
इसलिए
भीड़ के लिए
मंगल कामना के साथ
चुपचाप लौट जाती
अपने भीतर प्रतीक्षारत
औरत के पास
माँ एक नदी है
बेशक हमारे लिए
पर अपने लिए
वह एक औरत है
अपने ही जल के लिए छटपटाती
माँ
हमारे लिए
एक उत्तर
अपने लिए एक सवाल
युग-युग से
माँ का यही हाल।