"माँ / मोहनजीत" के अवतरणों में अंतर
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− | मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ | + | <poem> |
− | जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी | + | मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ |
+ | जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी | ||
− | हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ- | + | हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ- |
− | क्या लिखा है? | + | क्या लिखा है? |
− | माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी! | + | माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी! |
− | गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते | + | गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते |
− | माथे को छूते- सवेर होती | + | माथे को छूते- सवेर होती |
− | दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते | + | दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते |
− | तो चांद निकलता | + | तो चांद निकलता |
− | पता नहीं गीत का कितना हिस्सा | + | पता नहीं गीत का कितना हिस्सा |
− | पहले का था | + | पहले का था |
− | कितना माँ का | + | कितना माँ का |
− | माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते | + | माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते |
− | चलती तो एक लय बनती | + | चलती तो एक लय बनती |
− | माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी | + | माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी |
− | अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा' | + | अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा' |
− | बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर | + | बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर |
− | 'रबाब' भी कह लेती थी | + | 'रबाब' भी कह लेती थी |
− | पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है | + | पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है |
− | और आह के साथ जो हूक निकलती है | + | और आह के साथ जो हूक निकलती है |
− | उससे कौन-सा साज़ बना | + | उससे कौन-सा साज़ बना |
− | माँ नहीं जानती थी | + | माँ नहीं जानती थी |
− | माँ कहाँ खोजनहार थी ! | + | माँ कहाँ खोजनहार थी ! |
− | चरखा कातते-कातते सो जाती | + | चरखा कातते-कातते सो जाती |
− | उठती तो चक्की पर बैठ जाती | + | उठती तो चक्की पर बैठ जाती |
− | भीगी रात का माँ को क्या पता ! | + | भीगी रात का माँ को क्या पता ! |
− | तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती | + | तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती |
− | मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ | + | मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ |
− | इतना ही तो जानता हूँ | + | इतना ही तो जानता हूँ |
− | माँ | + | माँ साँस लेती तो लगता |
− | रब जीवित है!< | + | रब जीवित है! |
+ | </poem> |
16:32, 26 जून 2017 के समय का अवतरण
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मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी
हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!
गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते
तो चांद निकलता
पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का
माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती
माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी
पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी
माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती
भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती
मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ साँस लेती तो लगता
रब जीवित है!