भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कुछ अजीब नहीं लगता / अमरजीत कौंके" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |अनुवादक= |संग्रह=बन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:25, 27 जून 2017 के समय का अवतरण
इतना कुछ घटा
कि अब कुछ भी
अजीब नहीं लगता
इतना कुछ खोया
कि अब कुछ भी खोने का
एहसास नहीं रहा
जिन पौधों को
पानी डाल-डाल कर सींचा
जिनके सिर पर
हथेलियों से छाया की
उन्हीं के कांटों ने
चेहरा खरोंच डाला
जिन पर मन अभिमान करता
नहीं था थकता
वही हाथ खँजर बन
पीठ में घँस गए
काया जैसे बंजर हो गई
मन जैसे पत्थर हो गया
कुछ भी घट जाए
अब कुछ भी अजीब नहीं लगता।