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"कुछ भी हो / अमरजीत कौंके" के अवतरणों में अंतर

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10:26, 27 जून 2017 के समय का अवतरण

कुछ भी हो
अब आँसू नहीं आते
दुख जम जाता है भीतर
पत्थर की तरह

बहुत समय नहीं हुआ
कोई गीत सुनता था
तो रो पड़ता था
कविता पढ़ता
तो आखें नम हो जातीं
किसी को रोता देखता था
तो तड़प उठता था मन
माँ की याद आती थी
तो सिसक उठता था
कई बार अकेले बैठे-बैठे
बहने लगते थे आंसू

अचानक इतने खँजर
पीठ में आ घुसे एकदम
आँखो ने खँजरों वाले
हाथों को पहचाना
और पत्थर हो गईं

कुछ भी हो
अब आँसू नहीं आते
दुख जम जाता है भीतर
पत्थर की तरह...।