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"हाथी और खरगोश / सोहनलाल द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

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16:15, 28 जून 2017 के समय का अवतरण

खटपट, खटपट, खटपट, खटपट,
क्या करते हो बच्चो, नटखट?
आओ, इधर दौड़ कर झटपट,
तुमको कथा सुनाऊँ चटपट!

नदी नर्मदा के निर्मल तट,
जहाँ जंगलों का है जमघट,
वहीं एक था बड़ा सरोवर,
जिसकी शोभा बड़ी मनोहर!

इसी सरोवर में निशिवासर,
हाथी करते खेल परस्पर।
एक बार सूखा सर वह जब,
तब की कथा सुनो बच्चो अब।

पड़े बड़े दुख में हाथी सब,
कहीं नहीं जल दिखलाया जब-
सारे हाथी होकर अनमन,
चले ढूँढ़ने जल को बन बन।

मेहनत कभी न होती निष्फल,
उनको मिला सरोवर निर्मल।
शीतल जल पीकर जी भरकर,
लौटे सब अपने अपने घर।

हाथी वहीं रोज जाते सब,
खेल खेल कर घर आते सब।
किन्तु, सुनो बच्चो चित देकर,
जहाँ मिला यह नया सरोवर।

वहीं बहुत खरगोशों के घर,
बने हुए थे सुन्दर सुन्दर।
हाथी के पाँवों से दब कर,
वे घर टूट बन गए खँडहर!

खरगोशों के दिल गए दहल,
कितने ही खरगोश गए मर,
वे सब थे अनजान बेखबर!

सब ने मिलकर धीरज धारा,
सबने एक विचार विचारा।
जिससे टले आपदा सारी,
ऐसी सब ने युक्ति विचारी।

उनमें था खरगोश सयाना,
जिसने देखा बहुत जमाना।
बात सभी को उसकी भायी,
उसने कहा, करो यह भाई-

बने एक खरगोश दूत अब,
काम करे बनकर सपूत सब।
जाकर कहे हाथियों से यह,
उसके सभी साथियों से यह,

हम खरगोश, हमारा यह सर,
श्री खरगोश हमारे नृपवर।
चारु चन्द्र उनका सिंहासन,
जहाँ बैठ देते वे दर्शन!

हमको है नृपवर ने भेजा,
हुक्म उनहोंने हमें सहेजा।
जाकर कहो हाथियों से यह,
उनके सभी साथियों से यह।

अब न कभी तुम सर में आना,
होगा वरना मौत बुलाना!
जुल्म किया तुमने हम पर,
सब घर तोड़ बनाये खँडहर!!

अगर नहीं मानोगे कहना,
तुम्हें पड़ेगा संकट सहना।
मैं बिजुली का अंकुश लेकर,
नाश करूँगा तुम्हें पकड़ कर!

इससे अच्छा है मत आओ,
खरगोशों को अब न सताओ।
किसी दूसरे सर को ढूँढ़ो,
अब न कभी आना तुम मूढ़ो!

मुमकिन है सच बात जानकर,
मुमकिन है यह बात मानकर।
हाथी फिर न सरोवर आवें,
और हमारे घर बच जावें।

हुई बात भी कुछ ऐसी ही,
सोची गई घात जैसी ही।
अब आगे की सुनो कहानी,
चला दूत ले हुक्म जबानी।

सभी हाथियों के ढिंग आया,
गरज गरज कर हुक्म सुनाया।
हाथी सहम गए सब सुन सुन,
हाथी सभी हो गए गुन मुन!

किन्तु एक था उनमें बलधर,
वह बोला चिंघाड़ मार कर।
बात तुम्हारी जानूँ सच जब,
बात तुम्हारी मानूँ सच सब!

बातें तुम न मुझे सिखलाओ,
बस अपने नृप को दिखलाओ।
चारु चन्द्र जिनका सिंहासन,
जहाँ बैठ वे देते दर्शन।

बोला दूत, चलो तुम सर को,
मैं दिखलाऊँगा नृपवर को।
आये दूत और हाथी सर,
राह निखरने लगी वहीं पर।

हुई रात जब, झलमल झलमल,
नभ में तारे निकले निर्मल।
खिली चाँदनी, खिला सरोवर,
दृश्य बड़ा ही बना मनोहर।

आया चाँद मनोहर सुन्दर,
नीले नीले आसमान पर।
उसकी छाया निर्मल जल पर,
चमकी अतिशय सुन्दर सुन्दर।

चारु चन्द्र जिनका सिंहासन,
जहाँ बैठ देते वह दर्शन!
हाथी ने देखा तब जल पर,
बिम्ब चन्द्रमा का अति सुन्दर।

बोला दूत, शीश ऊपर कर,
देखो! वहाँ, बीच में, जल पर,
आसमान से अभी उतर कर,
आये श्रीखरगोश नृपतिवर।

अहा! चाँद के बीच मंच पर,
है खरगोश दीखता मनहर!
मन ही मन यह समझा बलधर,
श्रीखरगोश यही हैं नृपवर!

सचमुच हुक्म उन्होंने भेजा,
इसको सचमुच काम सहेजा।
हाथी लौट तुरत सर आया,
बोला, नृपवर से मिल आया।

बोला सभी हाथियों से वह,
बोला सभी साथियों से वह।
जाना ठीक न सचमुच सर में,
जाना मौत बुलाना घर में।

तब से कभी न हाथी आये,
और न उनके साथी आये।
खरगोशों ने युक्ति निकाली,
आयी बला शीश से टाली!

फिर बन गए नये घर सुन्दर,
लहरीं जिनपर लता मनोहर।
हुए सभी खरगोश मगन मन,
रहने लगे खुशी हो छन छन।