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"छंद 1 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर

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आज सुख सोवत सलौनी सजी सेज पैं, घरीक निसि बाकी रही पाछिले पहर की।
 
आज सुख सोवत सलौनी सजी सेज पैं, घरीक निसि बाकी रही पाछिले पहर की।
भड़कन लाग्यौ पौंन दच्छिन अलच्छ चारु, चाँदनी चहूँघाँ घिरि आई निसिकर की।।
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भड़कन लाग्यौ पौंन दच्छिन अलच्छ चारु, चाँदनी चहूँघाँ घिरि आई निसिकर की॥
 
‘द्विजदेव’ की सौं मोहिँ नैंकऊ न जानि परी, पलटि गई धौं कबै सुखमा नगर की।
 
‘द्विजदेव’ की सौं मोहिँ नैंकऊ न जानि परी, पलटि गई धौं कबै सुखमा नगर की।
औरैं मैन गति, जति रैन की सु औरैं भई, औरैं भई, मति औरैं भई नर की।।
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औरैं मैन गति, जति रैन की सु औरैं भई, औरैं भई, मति औरैं भई नर की॥
  
 
भावार्थ: आज सुंदर शय्या पर सुख से सोते हुए पिछले पहर में घड़ी भर रात बाकी रही थी कि अचानक दक्षिणानिल के प्रवाहित होने से और रमणीय चंद्रिका की अद्भुत ज्योति देखने से मेरी मति की गति विचित्र ही हो गई। यों ही काम की शक्ति, रात की यति और प्रीति की रीति तथा मनुष्य की चित्तवृत्ति, कुछ अनूठी सी देख पड़ी; सुतराम मुझे किंचित् भी भान न हुआ कि कब सारे नगर, वन, उपवन के साथ मनोविकार में यह परिवर्तन हो गया।
 
भावार्थ: आज सुंदर शय्या पर सुख से सोते हुए पिछले पहर में घड़ी भर रात बाकी रही थी कि अचानक दक्षिणानिल के प्रवाहित होने से और रमणीय चंद्रिका की अद्भुत ज्योति देखने से मेरी मति की गति विचित्र ही हो गई। यों ही काम की शक्ति, रात की यति और प्रीति की रीति तथा मनुष्य की चित्तवृत्ति, कुछ अनूठी सी देख पड़ी; सुतराम मुझे किंचित् भी भान न हुआ कि कब सारे नगर, वन, उपवन के साथ मनोविकार में यह परिवर्तन हो गया।
 
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16:23, 29 जून 2017 के समय का अवतरण

मनहरन घनाक्षरी

(वसंत से प्रकृति में परिवर्तन का अर्द्धजाग्रत् अवस्था में वर्णन)

आज सुख सोवत सलौनी सजी सेज पैं, घरीक निसि बाकी रही पाछिले पहर की।
भड़कन लाग्यौ पौंन दच्छिन अलच्छ चारु, चाँदनी चहूँघाँ घिरि आई निसिकर की॥
‘द्विजदेव’ की सौं मोहिँ नैंकऊ न जानि परी, पलटि गई धौं कबै सुखमा नगर की।
औरैं मैन गति, जति रैन की सु औरैं भई, औरैं भई, मति औरैं भई नर की॥

भावार्थ: आज सुंदर शय्या पर सुख से सोते हुए पिछले पहर में घड़ी भर रात बाकी रही थी कि अचानक दक्षिणानिल के प्रवाहित होने से और रमणीय चंद्रिका की अद्भुत ज्योति देखने से मेरी मति की गति विचित्र ही हो गई। यों ही काम की शक्ति, रात की यति और प्रीति की रीति तथा मनुष्य की चित्तवृत्ति, कुछ अनूठी सी देख पड़ी; सुतराम मुझे किंचित् भी भान न हुआ कि कब सारे नगर, वन, उपवन के साथ मनोविकार में यह परिवर्तन हो गया।