भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"छंद 20 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

17:48, 29 जून 2017 के समय का अवतरण

भुजंगप्रयात

कहूँ कोक हूँ कोक की कारिका कौं। पढ़ावैं भली-भाँति सौं सारिका कौं॥
सुकाली कहूँ गान के भेद राँचैं। लता-लोलिनी लोल ह्वै नाँच नाँचैं॥

भावार्थ: कहीं चक्रवाक अपनी मधुर ध्वनि के मिष आचार्यों की भाँति कामशास्त्र की कारिका सारिकाओं को पढ़ाते हैं; कहं शुकों के समूह गान के अनेक भेदों का आलाप करते हैं और कहीं लताएँ चंचल स्त्रियों सी चंचलता से नाचती हैं।