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दुर्मिला सवैया
(अन्योक्ति-वर्णन)
बिथुरीं मनि-पाँति जरायन की, तन की दुति कंचन-रूप रजौ।
सँग लीन्हैं अनेक तिया जिनकौं, लखि देव-बधून कौ बृंद लजौ॥
यहि भाँति सौं श्री बृषभाँनु-सुता, जिन पैं ‘द्विजदेव’ समाज सजौ।
तिन गोधन की महिमा-लखि कैं अब तौ गिरि-मेरु गुमान तजौ॥
भावार्थ: कवि अपने युक्ति-बल से गिरि गोवर्द्धन की महिमा ‘सुमेरुगिरि’ से विशेषकर दिखाता है कि सुमेरुगिरि में अनेक रत्न-खान होने के कारण रत्न इतस्ततः पड़े रहते हैं और यहाँ भी श्रीराधिकाजी की सहचरियों के अंग से जड़ाऊ गहनों से गिरे हुए अनेक रत्न दिखाई देते हैं। यदि वहाँ सुवर्ण की खाने हैं तो यहाँ भी सुवर्ण (सुष्ठवर्ण) वाली अनेक गोपियाँ ‘श्रीमती’ की सहचारी हैं। यदि वहाँ देव-वधूटियों का वास है तो यहाँ भी व्रज-सुंदरियों का निवास है जो उनसे किसी प्रकार रूप-लावण्य में कम नहीं हैं। एवंभूत गोवर्द्धन की महिमा देख अब तो सुमेरुगिरि ने नीचा देख गुमान को छोड़ दिया है।