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"छंद 166 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर

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रूप घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

जा दिन तैं प्यारे-पिय-पीतम सिधारे कहूँ, जानि ब्रज-मंडल घने-ई-घने उतपात।
‘द्विजदेव’ ता दिन तैं बैठी दुरि मंदिर मैं, सुमुखि सखीन हूँ की नैंकहू सुनीं न बात॥
बूढ़ौ बिन-दाँत कौ बिचारि सठ तोकौं तातैं, आजु इही आँगन मैं निकरि दिखायौ गात।
अबला अबल जानि, तूहूँ इतरात अरे नीरद बिसासी! कहा करत बिसास-घात॥

भावार्थ: अरे नीरद! (मेघ और दंतहीन, अतः वृद्ध) जिस दिन से प्राणनाथ ने विदेश को प्रस्थान किया, तब से समस्त व्रजमंडल को उपद्रव से भरा पाकर मैं अपने ग्रह के किसी कोने में छिपकर जा बैठी और अपनी प्राण-सहचरियों की बात भी मैंने न सुनी। पर हे शठ! तुझको बूढ़ा (वृद्ध) जान कर आँगन में आज ही आकर जो मैंने अपना शरीर दिखाया तो मुझे अबला या दुर्बल जानकर तू भी इतराता तथा मुझसे विश्वासघात करता है।