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"छंद 171 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर

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11:37, 3 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

आवति चली है यह बिषम-बयारि देखि! दबे-दबे पाँइन किँवारनि लरजि दै।
क्वैलिया कलंकिनि कौं दै री समुझाइ मधु-माँती मधु-पालिनि कुचालिनी तरजि दै॥
आज व्रजरानी के बियोग कौ दिवस तातैं, हरैं-हरैं कीर बकबादिन हरजि दै।
पी-पी कै पुकारिवे कौं खोलैं ज्यौंन जीहन, पपीहन के जूहन त्यौं बावरी! बरजि दै॥

भावार्थ: इस कवित्त में कवि ने परम चतुराई व अपने कोमल शब्दों के प्रयोग से परम सुकुमारी श्रीराधिकाजी की वियोग-दशा में अंगों की विकलता दिखलायी है। कोई अंतरंगिणी सखी परिचारिकाओं को इस भाँति आज्ञा देती है कि देखो! यह वसंत की विषम (गरम) अर्थात् उद्दीपनकारी बयारि (हवा) हठात् चली आ रही है, अतः तू दबे-दबे पाँवों से चलकर किवाड़ों को धीरे से ओठगाँ दे-बंद कर दे, इससे लक्षित होता है कि नायिका की सुकुमारता व विकलता यहाँ तक बढ़ी है कि उसके वास्ते कवि को ‘दबे पाँव’ और ‘लरजि दे’ जैसे कोमल पदों को लाना पड़ा। वह नायिका कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, किंतु ऐसी है कि पैरों की आहट और किवाड़ों को धड़ाके से बंद करने के शब्दों को भी सहन नहीं कर सकती तथा कलंकिनी अर्थात् कलंकयुक्त किंवा काले रंग की करमुँही यानी काले मुँहवाली कोकिल को तू समझा दे। अभिधामूलक व्यंग्य से यहाँ ‘मधु’ पद के तीन अर्थ होते हैं जैसे कि चैत्र, पुष्परस और मद्य अर्थात् चैत्रमास से उन्मत्त हुई कोकिल प्रायः इन महीनों में रात-दिन बोला करती है अथवा मधु या मकरंद (मदिरा) का पान किए हुए उन्मत्त हो रही है और मधुपालिन (ऋतुराज से पोषित अर्थात् महाराजाओं के कृपापात्र होकर प्रायः अधम लोग फूलकर उन्मत्त हो जाते हैं) कोकिल को समझा दे कि वह अपनी कुचालों से बारंबार उद्दीपनकारी ‘कुहू’ शब्द के उच्चारण को छोड़ दे। कवि ‘समुझाइ’ शब्द के प्रयोग से लक्षित कराता है कि नायिका अपनी सुकुमारता और विकलता के कारण, डाँट-डपट, झगड़ा-फसादा और व्यर्थ के झों-झों करने को सहन नहीं कर सकती, क्योंकि यह कोई साधारण गूजरी-गँवारी के वियोग का दिन नहीं है किंतु सर्वगुणआगरी शिरोमणि श्री राधारानी के वियोग का दिन है, अतएव हरे-हरे बकवाद करनेवाले शुक-समूहों को भी मना कर। इस पद के अन्य सन्निधि व्यंग्य से दो अर्थ होते हैं पहला तो-हरे रंग के और दूसरा धीरे-धीरे। चातक समूह को ऐसा रोक कि वह ‘पी कहाँ’, ‘पी कहाँ’ शब्द का उच्चारण करना तो क्या इस इच्छा से जिह्वा चालन भी न करे; क्योंकि कदाचित् मूर्च्छा की अवस्था में महारानी संयोग का सुखानुभव करती हों व निद्रा आ जाने से स्वप्नावस्था में प्यारे से सम्मिलन होता तो तो ‘पी कहाँ’ अर्थात् प्रियतम कहाँ है, यानी समक्ष नहीं है, अतएव कोई पूछती है, ऐसा सुने तो इस बात के सुनने से क्षणिक सुख में भी भंग पड़ेगा जो बहुत ही हानिकारक है।