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रूप घनाक्षरी
(मध्याधीरा नायिका-वर्णन)
चहचही सेज चहूँ चहकि चमेलिन सौं, बेलिन सासैं मंजु-मंजु गुंजत मलिंद-जाल।
तैसैंई मरीचिका दरीचिन के दीवे ही मैं, छपा की छबीली छबि छहरति ततकाल॥
कवि ‘द्विजदेव’ सुनौं सारस-नयन स्याम, दीठि चकचौंधि जैहै देखत मुकुर-माल।
ह्वै है यह सुखद सदाँ हीं रावरे कौं अब, मनिमय मंदिर कौ चलिवौ चतुर लाल॥
भावार्थ: कोई मध्याधीरा नायिका व्यंग्य-वचन द्वारा आदरपूर्वक प्रभात में आए कृष्ण से-नायक-से कहती है कि आप तो स्वयं विज्ञ हैं, इस समय यह अत्यंत समीचीन होगा कि आप शीशमहल को पधारें और किंचित् वहाँ सुखद शय्या पर विश्राम करें, यदि यह विचार हो कि सूर्योदय का समय है अब शयन करना उचित नहीं तो उसका उपाय मैं यह करती हूँ कि झरोखों में परदे खींच दूँगी जिससे प्रभात की प्रभा का प्रतिरोध हो जाएगा तथा उस स्थान में सतत रजनी ही का आभास रहेगा। चमेली के पुष्पों से सुसज्जित शय्या की सुगंधमय शोभा अत्यंत श्रमहारिणी है अर्थात् थोड़े ही काल में मन हरा हो जाएगा और चतुर्दिक् लगाए हुए फूलदानों में एवं पुष्प-लतिकाओं पर भ्रमर गुंजार करते हैं जिससे शयनगार में एक सनाका सा बँध रहाहै, जैसे रात्रि के समय में कीट-पतंगादिक की ध्वनि के मिलने से एक प्रकार की सनसनाहट होती है। हे सारस (कमल व आलस्ययुक्त) नयन श्याम! (हृदय के श्याम व कृष्णचंद्र) अंधकार के कारण लगाई हुई दीपावली से शीशों पर पड़ी हुई झिलमिलाहट आपकी आँखों में चकाचौंध मचा देगी जिससे निद्रा न आते हुए भी पलकें बंद करनी ही पड़ेंगी तो अवश्य किंचित् नींद आ ही जाएगी। इन प्रेममय सादर वचनों की ध्वनि एतन्मात्र है कि नायिका, नायक को शीशमहल में ले जाकर विशेष उँजेरे में आदर्श (दर्पणों) के सम्मुख उपस्थित किया चाहती है, जिससे चतुर नायक अपने अंग-प्रत्यंग पर रति-चिह्नों का स्वयं अवलोकन कर लेवे और शयन करने का अनुरोध भी इसी कारण करती है कि जिसमें नायक समझ जाए कि उसका रति-जगा (रात्रि का जागरण व रति संबंधी जागरण) नायिका भाँप (जान) गई और इसी कारण उसने श्याम शब्द से संबोधित किया कि तुम हृदय के काले अर्थात् छली हो।