"छंद 193 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
11:51, 3 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
दुर्मिल सवैया
(परस्पर फाग-वर्णन)
इत तैं बनि आईं नई नवला, उत तैं मनमोहनऊँ उँमहे।
लहि साँकरी-खोरि बिथारि गुलाल, बिसाल दुहूँ-भुज-जोरि रहे॥
‘द्विजदेव’ अभूत भई यह ताछिन, देखैं बनैं पैं बनैं न कहे।
कसि बोरिवौ चाँहत जौ लौं लला, रस की सरिता महँ आपै बहे॥
भावार्थ: एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि होली खेलते समय मैंने विचित्र गति देखी। एक ओर से तो नवीनवयस्का नायिका अर्थात श्रीराधिकाजी आईं और दूसरी ओर से मनहरनहारे श्री कृष्णचंद्र भी होली खेलने के उत्साह से भरे हुए आ उपस्थित हुए; ‘साँकरी-खोर’ (एक विशेष संकीर्ण मार्ग, जो व्रजमंडल में प्रसिद्ध है) को पाकर गुलाल की धूँधरी में परस्पर आलिंगन किया। हे सखी! उस समय की विचित्रता देखते ही बनती थी, उसका विवरण जिह्वा से नहीं हो सकता, जब तक श्यामसुंदर रंग में बरजोरी नायिका को डुबोना चाहें तब तक प्रेमाधिक्य के कारण वे रसरूपी नदी में स्वयं बह चले।