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मनहरन घनाक्षरी
(पूर्वानुराग-वर्णन)
हाँसी भई सापनौं अवा-सी भई देह यह, दासी भई बैरिनैं बिसासी भईं सखियाँ।
‘द्विजदेव’ त्यौं ही कछु फूले-फूले किंसुकन, जवाल-जाल लागी-सी चहूँघाँ दिसि लखियाँ॥
चोप-चटवारौ-चित्त-चंचल-चकोर मेरौ, कैसी करैं बावरी परिद बिन पखियाँ।
जाछिन तैं जाइ अति उँमगि अघाइ, मनमोहन सौं हाइ! मिलि आईं मेरी अँखियाँ॥
भावार्थ: हे सखी! जिस क्षण से उत्साहपूर्वक मेरे नेत्र मनमोहन के रूप को आतृप्ति निरीक्ष्ण कर आए तब से हँसी स्वप्न हो गई, शरीर कुम्हार के आवाँ के सदृश प्रत्यक्ष न हो अभ्यंतर ही दहक रहा है। परिचारिकाएँ बैरिन सी एवं सखियाँ प्रेतनी सी प्रतीत होती हैं एवं पलाश-पुष्पमाला दिगंतों में दावाग्नि ज्वाला सी जान पड़ती है; निदान प्रबल इच्छा से भरा हुआ मेरा चटुल-चकोर-चित्त, उस मुख-चंद्र के दर्शन को पक्षहीन पक्षी सा तड़फड़ा रहा है।