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"छंद 261 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर

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16:34, 3 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

मत्तगयंद सवैया
(मुखमंडल-वर्णन)

आरसी की उपमा जो हुती, सु तौ वा मुख की छबि देख तैं लाजी।
सो तौ सदाँ बिकसौई रहै, कब सारसी ता-समता कहँ छाजी॥
ए ‘द्विजदेव’ कहौ किन आज, रहे उपमान जु पैं हिय साजी।
ता सौं लहैगौ प्रभा द्विजराज, बिराजै जहाँ द्विजराज की राजी॥

भावार्थ: भगवती भारती कहती हैं कि श्री राधाजी के ‘मुखमंडल’ की शोभा देख आरसी अर्थात् गोल दर्पण तो पहले ही लज्जित हो चुका यानी उस मुखमंडल का प्रतिबिंब पड़ते ही अपनी स्वच्छता छोड़ उसकी छाया को ग्रहणकर उसका अनुगामी हुआ और सारसी अर्थात् कमलिनी उस सदा विकसित बदन की क्या समता करती जिसका नाम ही सारसी अर्थात् आलस्ययुक्ता है। हे कवि द्विजदेव! जो अपर्याप्त उपमा का प्रयोग करना चाहते हो तो तुम उसको प्रकाश रूप से क्यों नहीं कहते? क्यों हृदय के कोण में दबाए हुए हो? मैं समझ गई, तीसरा उपमान सिवाय चंद्रमंडल के और शेष ही क्या रहा, किंतु यह तो विचारो कि द्विजराज (चंद्रमा) उस मनोहर मुखमंडल की समता को कैसे पावेगा, जिसमें अनेक द्विजराजों (दंतावली) की राजी (पंक्ति) विराजमान है। देखो तो, कहाँ तो बेचारा चंद्रमा और कहाँ चंद्रमा-समूह कितना अंतर पड़ा? (इस सवैया में सारसी और द्विजराज शब्दों में अभिधामूलक व्यंग्य है।)