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मनहरन घनाक्षरी
(अंगुली-वर्णन)
कुंदन की पाँखुरी तुलैंगीं तिल एकऊ न, बुंद ना तुलैगी छबि चंपक-कलीन की।
तिन छबि-सामुहैं उदोत कौंन भाँति पैहैं, लाख-लाख लेखनी मनोज मति-हीन की॥
‘द्विजदेव’ की सौं कित काके ढिँग जाइ अहो! रीति यह सीखी कहौ कौंन धौं प्रबीन की।
ढूँढ़ि-ढूँढ़ि अमित अनौंखे उपमान जो पैं, समता बिचारत असम-अँगुरीन की॥
भावार्थ: हे कवि! कहाँ किसके समीप जाके ऐसे-ऐसे विचारों में प्रवीणता की शिक्षा पाई है? भला देखो तो कुंद-पुष्प की पँखुड़ी कहीं उन रसीली अंगुलियों की समता तिलमात्र भी पा सकती है एवं चंपक-कलिका की उपमा क्या बिंदुमात्र भी तुल सकती है? क्योंकि ये दोनों जड़ हैं और वे चैतन्य हैं, ये ऐसे रुक्ष हैं कि छूते ही इन पुष्पों की पँखुड़ी झड़ पड़ती है और वे अत्यंत कोमल व लोचदार हैं। ऐसी कोमल व लोचदार उन अंगुलियों की छवि के सामने कामदेव की लेखनी (कलम) क्या सामना करे? मतिमंद मतिहीन की लेखनी ही क्या? क्योंकि वह तो मतिहीन है। मतिहीन शब्द के प्रयोग के दो कारण हैं, प्रथम तो यह कि काम का नाम अनंग है, जो अंगरहित होगा उसके विचार का स्थान मस्तिष्क व हृदय कहाँ होगा? इस प्रकार वह बुद्धि से भी रहित हुआ, दूसरे काम के उद्वेग से सदा बुद्धि मारी जाती है (ग्रीक और रोमन लोगों ने भी काम-क्यूपिड (ब्नचपक) को अंध माना है) वह विवेक-शून्य है; इन कारणों से मुझको तुम्हारी प्रवीणता पर हँसी आती है कि जिनको विधाता ने स्वयं असम बनाया है उनकी समता कहाँ से पाओगे? अर्थात् पाँचों अंगुलियाँ एक-दूसरे के स्वयं बराबर नहीं और यह कि गिनती में भी वे विषम हैं, यानी पाँच हैं, और तीसरे समता रहित अर्थात् अनुपम हैं, तो उनके उपमान कहाँ से मिलेंगे? इससे ‘कवि’ गणित विद्या में दक्ष होने का अपना पूर्ण परिचय देता है।