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मेरी दाई का मरद
अक्सर भाग जाता है
चार बच्चों के साथ अकेला छोड़कर उसे
इस दावे के साथ
कि औरत तो मिल जाती है कहीं भी
और जब चाहे लौटकर
लेट जाता है उसके पास
इस अधिकार से
कि पति है
दाई रोती है ..कलपती है
फिर भी माँग में
चटख सिन्दूर भरती है
करती है सुहाग वाले सारे व्रत
साँवली-सलोनी, छरहरी दाई
घर -घर माँजती है बरतन
पालती है बच्चों का पेट
नाक पर बैठने नहीं देती
मक्खी भी
ठसक ऐसी कि छोड़ देती है
धन्ना सेठों का भी काम
ठीकरा समझती है पैसे को
आबरू के आगे
पर नहीं कर पाती लागू
अपने बनाये नियम
शराबी, भगोड़े पति पर
टोकने पर कहती है ‘इ त अउरत के धरम ह दीदी’
और मैं सोचती हूँ _’इतना अलग क्यों है स्त्री का धरम
पुरूष के धरम से’