"आधी रात के बाद / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर
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आधी रात के बाद
पूरी तरह सोने से पहले
उनींदी आँखें
अध खुली, बोझिल पलकों से
समेटती हैं जल्दी-जल्दी
महाशून्य के रिक्त पटल पर
अदृश्य से प्रक्षेपित
अनजान सपनों की अबोध किरणों को!
‘राइटिंग –टेबल’ के, ’पेपर वेट’ की दुनिया में
रेशमी धागों के गुच्छे -सी
चटख,रंग-बिरंगी, चमकदार
अजन्मी स्मृतियों के घर में
धुँधला-सा, नी S S S S ला फर्श देखती हूँ एकटक!
शा...य..द... .!
उड़ रही होती हूँ आकाश में?
नहीं...नहीं....!
नीली व्हेल की पीठ से चिपटकर
उतर रही होती हूँ
अथाह समंदर की गहराइयों में
अरे,नहीं –
‘टेबल-क्लाथ की नीलिमा क्या जाने’
सिर झुकाए बैठे, बूढ़े लैम्प की आँखें
कब पथरा जाती हैं?
धुंधले काँच के पार
जमाना हो गया, डायरी लिखना छोड़े
यहाँ तक आ ही गयी, तो पन्नों से मिलती चलूँ!
स्कूल के दिनों का मोरपंख कैसा है अब?
देखती चलूँ! एक नज़र,उसे भी?
रंगों के इंद्र्धनुषी नाम
उसी ने लिखे होंगे, मोरपंख पर,
शायद...
’कढ़ाई’का शौक होगा उसे
शायद...
‘बेल-बूटे’ बनाती होगी इन दिनों
सुबह से देर रात तक!
शायद-
कुछ भी नहीं छूटा होगा
हाथ के रूमाल से लेकर
तकिये के खोल तक
करे भी क्या?
हाँ...सोचती तो जरूर होगी –
कभी-कभी कि...कैशोर्य के सपने
क्यूँ बदल जाते हैं अक्सर?
गुनगुने, खारे, पनियल सपनों में?
शायद... .उसी के शौक ने, रखा होगा सहेजकर... .
’पेपरवेट में
इन...काँच के रेशमी धागों को
जिन्हें ख्यालों में सुलझाते हुए
अक्सर निकल पड़ती हूँ मैं
स्पर्श के पोरों से बहुत दूर,
स्वप्निल रास्तों पर बसे –
‘अनजिए कालखण्डों’ के गाँव की ओर
शरणार्थी बादलों से भरी,
पहाड़ी बस्ती में,
शाम की ढूंढ ओढ़े,
हाथ सेंकती,
मुस्कुराकर,
शर्म से झुकती,
एक जोड़ी पलकों के कुंआरे सपने,
पता नहीं क्यूँ...
उलझ बैठते हैं मुझसे, अक्सर!
आधी रात के बाद
पूरी तरह सोने से पहले