"कैसा यह मन / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर
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जाने कब निकल आया
नन्हा पौधा
गुलाब का
आँगन में मेरे
फोड़कर
पथरीली मिट्टी कैसे बचा रहा जीवित
बिना हवा पानी
धरती की गर्भ में आया कहाँ से
उगा बेतरतीब करीने से सजे गमले के फूलों में
ठीक नहीं उगना इसका
काटा,उगा फिर काटा, उगा फिर बार-बार
इसी तरह उगा है
आँगन में इस बार
लहलहाया काटा जिसे बार-बार
पाकर खाद-पानी हवा फैल गयी शाखाएँ
फूट उठीं कोंपलें
कस लिया शाखाओं ने
मेरे हृदयतंतुओं को, जब
चूम लिया मैंने पहली
कली को
लगता है अब मुझे
नहीं दे सकता इतना सुख संतोष
उपवन भी कोई विविध वर्णी फूलों से भरा
जितना कि
फूल यह अनचाहा इकलौता मेरे आँगन का सींचा है मैंने
जिसे,अपने ही जीवन रस से, आस्था से, आत्मा से
इसके काँटों से बार-बार विद्ध हुई खुश हुई विद्ध होकर
जंगली इस गुलाब से
सोचती हूँ बार-बार
क्या है यह –
प्रेम है मोह है मेरे भीतर के रचयिता का या
बचपना है मन का
भागती हुई उम्र के पीछे कैसे
छूट गया होगा मन
कैसा है ये मन जिसमें
बचा रह गया है बचपन
अभी भी