भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"क्या अब भी / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह=ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
16:11, 4 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
दिन प्रति दिन
व्यतीत होता जाता है जीवन
नहीं बीत रहा तो मन
नहीं रीत रही तो देह
देह में दौड़ती है वही आवेगमयी नदी
लेते ही तुम्हारा नाम
आँखें देखती हैं
उगते सूरज में तुम्हारा चेहरा
पंखुरियों में तुम्हारे होंठ
पहले की तरह
कैसे हो तुम
सुना है दिखने लगे हो थोड़े बूढ़े
बालों में आ गयी है कुछ सफ़ेदी
कैसे मान लूँ
नहीं बची होगी आग
कि उपले सी सुलग उठे देह
चूक गयी होगी बाँहों की मजबूती
बची तो होगी जरूर प्यास
बूंद-स्वाती –सीप की
हार गए होगे उम्र से
प्रेम ने बचा रखा होगा तुम्हें
वैसे का वैसा ही
जैसे छूटते समय