"वह चूड़ीवाला / गोविन्द कुमार 'गुंजन'" के अवतरणों में अंतर
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नीम अंधेरी सुबह
घर से निकल पड़ता है एक मनिहार
फेरी लगाकर बेचता है चूड़ियाँ
उसकी फेरी पड़ोस के गॉंवों तक जाती है
मुहल्ले के घरों से लेकर
दूर दूर तक के पड़ावों तक जाती है
हर दोपहर किसी पेड़ के नीचे
वह एक कपड़े में लिपटी रोटियां निकालता है
रोटी को छूते ही एक झनकार आती है चूड़ी की
जो उसे सुनाई नहीं देती
रोटियों की सिकाई के साथ साथ
उनमें पक गयी किसी की चूड़ियों की झनकार
एक स्वाद बन चुकी है
यह स्वाद
उसकी आत्मा में उतर जाता है एक गीत बनकर
इसी गीत के साथ
चलती रहती है उसकी फेरी गलियों में
सुहागने इंतजार करती है उसका
दोपहर की धूप में आँगन में अनाज बीनती बूढ़ी औरते
उसकी आवाज सुनकर
पुकारती है अपनी बहुओं और बेटियों को
लड़कियॉं देर तक उलटती पुलटती है
उसकी चूड़ियों के गुच्छे और
नये रंग तलाशती है
अपने पंसद की चूड़ियाँ
खुद इनसे नहीं चढ़ती अपनी कलाई पर
मगर मनिहार
सबकी कलाई पर चढ़ा देता है चू़िड़याँ
यह कमाल है चूड़ियों के जादू का वर्ना
इन औरतों के हाथ
इस अधिकार से कौन पकड़ सकता है
काँच की चूड़ियों के जादू में
गुम है पूरे गॉंव की औरतेे
इनकी झनकार से गृृहस्थी मंदिर लगती है
जिसकी हर आहट में घंटियॉं सी टनटनाती है
ये चूड़ियाँ
बुहारी के साथ सुबह सुबह जगती है
घट्टियों के साथ बजती है
इनकी झनकार बेली जाती है रोटियों के साथ
और रोटियों में पककर
बनती है आत्मा का संगीत
बालों को संवारते हुए हाथों से
इनकी झनकार मुखड़े पर बरसती है
और बदल जाती है हँसी के उजालों में
शहदीली सुहागन रातों की गलबहियों में भी
ये झनकारें रूकती नहीं
कोई सुने न सुने ये क्या क्या नहीं कहती
मगर चूड़ियाँ बेचता
वह बूढ़ा मनिहार कभी सुन नहीं पाया ये झनकारें
वैसे पकती रही वह उसकी रोटियों में भी सांझ सकारे
अब उसकी
मनिहारिन नहीं है दुनिया में
मगर फेरी से लौटकर वह खोलता है घर की सांकल
तो उसे सुनाई देती है वही चूड़ी की झनकार
उसकी आँखें भीग जाती है
नीम अंधेरी सुबह
घर से निकल पड़ता है मनिहार
फेरी लगाकर वह बेचता है चूड़ियाँ