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"शहर में भूख / गौरव पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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साधारण सी बात को
पिता बड़े गूढ़ तरीके से कहते
"बेटा!! इस देश में लोग भूखे मरते हैं
और कवि भी"
हम हँसते-वे नाराज़ होते।
गाँव में खेत थे हमारे
बाग थी, बाग़ में पुश्तैनी आम-जामुन
कुआँ-तलाब लबालब
परिवार-पड़ोसी सब
भला कैसे समझ में आती पिता की बात तब!
अब शहर में
कुछ अधिक ही लगती है भूख
गला कुछ ज्यादा ही सूखता है
हमें याद आते हैं खेत
परिवार-पड़ोसी याद आते हैं
मन हिरनों-सा भागता है गाँव की ओर...
पर अब कहाँ
हमारा वो पहले वाला गाँव
परिवार-पडोसी-बाग़-बगइचा-छाँव.!
फिर भी पाठकों.!
गाँव में पिता हैं, माँ है हमारी
जहाँ पिता हैं वहाँ भटकना नहीं है
जहाँ माँ है वहाँ भूख नहीं है!