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"काँच के पीछे / गौरव पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

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18:29, 28 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

स्त्रियों के अंग झाँक रहे हैं
साड़ियाँ सजी हुई हैं काँच के पीछे
रबर और प्लास्टिक की गुड़िया
परियों वाली फ्रांक पहने लुभा रही हैं
ललचाई नजरों से टुक-टुक देख रही हैं बच्चियाँ

काँच के उस पार
लगातार उठ रही है व्यंजनों की खुशबू
भूखे बच्चे मचल उठते हैं सड़क के इस पार
दौड़-दौड़ ग्राहकों से करते हैं चीजों को खरीद लेने की मनुहार

ये ख़ानाबदोश लोग बाँस को
छील-काट बनाते हैं
कुछ उपयोगी घरेलू चीजें
और काँच के पीछे से निकल कर
आने वाले ग्राहकों का इंतज़ार करते हैं

ये चुपचाप देखते हैं
दुनिया को काँच के पीछे सिमटते हुए
काँच से बाहर आते हुए लोगों के ठहाके सुनते हैं
रात के अंधेरे में अपने तंबुओं से लेटे हुए वे देखते हैं
काँच के पीछे की चमक रही चीजों को
ये जानते हैं उनकी पहुँच से बाहर है
काँच के पीछे की दुनिया
लेकिन यह भी जानते हैं कि
उम्मीद बची रहेगी काँच के बाहर भी
जब तक मजबूत हैं हाथ
और पहुँच में हैं
बाँस, धारदार छूरे और पत्थरों के टुकड़े