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"डर / स्वाति मेलकानी" के अवतरणों में अंतर
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ढूँढ-ढूँढ कर
लाना पड़ता है
खुद को
बार-बार
कभी यहाँ से
कभी वहाँ से
नजर रखनी पड़ती है
खुद पर
वरना डर बना रहता है
खुद के खो जाने का
इधर-उधर
यहाँ-वहाँ
और न जाने
कहाँ-कहाँ।