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अब तक वो टहनी मेरी पहुँच से दूर है
बचपन से उचक उचक कर पकड़ना चाहा है उसे बारहा
पंजों के बल खड़े होकर
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया
वैसे वैसे और ऊंची होती गयी है वो टहनी
जिसपर खिलते हैं हर सिंगार के फूल
जहां होता है जुगनुओं का बसेरा
जिसपर हर रात कुछ पल सुस्ताता है चाँद
तारों की टोली के साथ
आसमान से नीचे उतर कर
और जुगनुओं को बांटता है रोशनी थोड़ी थोड़ी
झील मेरी पहुँच में रही है बचपन से
जब चाहा छप छप करता उतर पड़ा
पर झील में जाने क्यों कांपती सी दिखती है
हरसिंगार की परछाईं
हिलता सा दीखता है चाँद
और दोनों ही मेरी मुट्ठी में नहीं समाते
लगता है मुझसे बेहतर है जुगनुओं की किस्मत
अब तो हर रात जागता हूँ मैं झुरमुट में छुपकर
हर रात सोचता हूँ
अंजुली में भर लूं टटके खिले हर सिंगार
कुतर लूं चाँद का एक टुकडा अपने दूध के दांतों से
कुछ जुगनुओं को बंद कर लूं पारदर्शी शीशी में
पर हर सुबह नींद खुलती है अधूरे ख़ाब के साथ
बढ़ जाती है मेरी मुट्ठी की प्रतीक्षा
थोड़ी और छोटी हो जाती है हथेली पर उगी भाग्य रेखा
हर सुबह जाने क्यों मुझपर हंसता सा दीखता है
मेरे आँगन का ठूँठ