"कुछ नहीं बदलता / स्मिता सिन्हा" के अवतरणों में अंतर
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14:13, 23 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
उस रोज़ देखा मैंने
तुम्हें खुद को धोते,
पोंछते,चमकाते
करीने से सजाते हुए
कितने व्यस्त थे तुम
खुद को बचाने में
जबकि तुम्हें बचाना था
अपने वक़्त कि
कई कई नस्लों को
कुछ नहीं बदलता
गर तुम रहने देते
अपनी कमीज़ पर
काले गहराते खून के धब्बे
और सहेजते बाकी बचे
खून को बहने से
लेकिन कलफ लगी
झक्क सफ़ेद कमीज़ पहनना
ज़रूरी लगा तुम्हें
कुछ नहीं बदलता
गर तुम रुकते थोड़ी देर
और सिखाते उन कदमों को
चलने कि तमीज
लेकिन जूतों का नाप लेना
ज्यादा ज़रूरी था तुम्हारे लिये
तुम्हें पता है
जब तुम कर रहे थे
अपनी अपनी शक्लों की लीपापोती
ठीक उसी वक़्त
गहरे तक खरोंची जा रही थी
कहीँ इंसानियत
हैवानियत उफान पर था
देखो तो जरा
खून में लिपटे
उन ठंडी पड़ी गोश्त के टुकड़े
तुम्हारे नाखूनों में तो
फँसे नहीं पड़े हैं
जाओ धो डालो इन्हें भी
समय रहते ही
बेहद ताजे व जिंदा सबूत हैं
ये तुम्हारे खिलाफ़
बोल उठेंगे कभी भी...