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"जूतों की चरमराहट / स्मिता सिन्हा" के अवतरणों में अंतर

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14:25, 23 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

वह ऊँची आवाज़ में
क्रांति की बात करता है
संघर्ष की बात करता है
और फ़िर निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है
वह देखता है
हर रोज़ होती आत्महत्याओं को
रचे जा रहे प्रपंचों को
वह हर रोज़ गुजरता है
अपनी उफ़नती सोच की पीड़ा से
किंतु प्रमाणित नहीं कर पाता
अपने शब्दों को
वह हर रोज़ बढ़ाता है एक क़दम
उस अमानुषी पत्थर की ओर
फ़िर एक क़दम पीछे हो लेता है
वह अपने और ईश्वर के बीच
नफ़रत को बखूबी पहचानता है
और पहचानता है हवाओं में
देह व आत्माओं की मिली जुली गंध
वह देखता है
सभ्यता के चेहरे पर पड़े खरोंचों को
वह देखता है
सदी के नायकों को टूट कर
बिखरते बदलते भग्नावशेषों में

वह अकेला है, विखंडित
इतनी व्यापकता में भी
अभी जबकि
जल रहे हैं जंगल, गेहूँ की बालियाँ
टूट रहे हैं सारसों के पंख
कैनवास में अभी भी
सो रहा है एक अजन्मा बच्चा
और उसकी माँ की चीखें
कुंद होकर लौट रही हैं
बार बार उसी कैनवास में
अभी जबकि हो रहे हैं
हवा पानी भाषा के बंटवारे
और समुन्दर के फेन से
सुषुप्त हैं हमारे सपने
उसे थामना है इस थर्राई धरती को
और चस्पा करने हैं मुस्कान के वो टुकड़े
जिसमें बाकी हो कुछ चमकीला जीवन
अभी जबकि बाकी है उसके जूतों में चरमराहट
उसे लगातार दौड़नी है अपने हिस्से की दौड़...