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"उसकी आँखें / स्वाति मेलकानी" के अवतरणों में अंतर
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खालीपन से ठसाठस भरी
उसकी आँखें
जैसे फर्श पर बिखरे
हजारों सफेद पन्नों पर
लिखे सवाल
और
पतझड़ में झड़ते
काले-भूरे पन्नों पर
लिखे
आधे-आधे जवाब
मिल गये हों साथ।
और
इस सबके बीच
वह खुद
फर्श सी लेटी है।
बदन पर
सिर्फ दो आँखें
खुली और खामोश।
नींद और सपने
सभी सामान लेकर
जा चुके हैं।
फर्श पर पड़ती दरारें
चीर जाती हैं
जहाँ बुनियाद को भी
यह इमारत हिल रही है
और
इस सब के बीच
वह खुद
फर्श सी लेटी है।