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"बातों के मौसम / स्वाति मेलकानी" के अवतरणों में अंतर
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गहरा जैसा क्या है इसमें
जो हम जीते रहते हैं
बातों के कितने ही मौसम
आते-जाते रहते हैं
कहे और अनकहे के भीतर
छूट गये - से खानों में
सिली हुई-सी भीगी बातें
यूँ ही रखते रहतें हैं...
जब फिर खामोशी छाती है
तनहाई की खिली धूप में
उन गीली-गीली बातों को
धूप दिखाते रहते हैं...
कभी पुराना कोई खाना
बातों की अलमारी में
खुल जाए
तो फिर से कोई
बात पुरानी कहते हैं
नये-नये मतलब गढ़ते हैं
सीधी-सादी बातों के...
कभी अकेले हँसते हैं
फिर कभी बेवजह रोते हैं
अनजाने कह दी थी तुमने
हमने अब तक रखी है
उलट-पलट बात तुम्हारी
अक्सर सुनते रहते हैं...