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"जंगल / लवली गोस्वामी" के अवतरणों में अंतर

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13:31, 4 सितम्बर 2017 का अवतरण

जिन्हें यात्राओं से प्रेम होता है
वे यात्री की तरह कम
फ़क़ीरों की तरह अधिक यात्रा करते हैं
जिन्हें स्त्रियों से प्रेम होता है
वे उनसे पुरुषों की तरह कम
 स्त्रियों की तरह अधिक प्रेम करते हैं
प्रेम के रंगीन ग़लीचे की बुनावट में
अनिवार्य रूप से उधड़ना पैवस्त होता है
जैसे जन्म लेने के दिन से हम चुपचाप
मरने की ओर क़दम दर क़दम बढ़ते रहते हैं
वैसे ही अपनी दोपहरी चकाचौंध खोकर
धीरे- धीरे हर प्रेम सरकता रहता है
समाप्ति की गोधूलि की तरफ
टूटना नियति है प्रेम की
यह तो बिलकुल हो ही नहीं सकता
कि जिसने टूट कर प्रेम किया हो
वह अंततः न टूटा हो

प्रेम में लिए गए कुछ चिल्लर अवकाश
प्रेम टूट जाने से बचाने में मदद करते हैं
वह जो प्रेम में आपका ख़ुदा है
अगर अनमना होकर छुट्टी मांगे
तो यह समझना चाहिए
कि प्रेम के टूटने के दिन नज़दीक़ हैं
पर टूटना मुल्तवी की जाने की कोशिशें ज़ारी है

प्रेम आपको तोड़ता है
आपके रहस्य उजागर करने के लिए
बच्चा माटी के गुल्लक को यह जानकर भी तोड़ता है
कि उसके अंदर चंद सिक्कों के अलावा कुछ भी नहीं
यह तुम्हारे लिए तो कोई रहस्य भी नहीं था
कि मेरे अंदर कविताओं के अलावा कुछ भी नहीं
फिर भी तुमने मुझे तोडा

हम दोनों खानाबदोश घुमक्कड़ों के उस नियम को मानते थे
कि चलना बंद कर देने से आसमान में टंगा सूरज
 नीचे गिर जाता है और मनुष्य का अस्तित्व मिट जाता है

आजकल लोग कोयले की खदानों में
ज़हरीली गैस जाँचने के लिए
इस्तेमाल होने वाले परिंदे की तरह
पिंजड़े में लेकर घूमते हैं प्रेम
ज़रा सा बढ़ा माहौल में ज़हर का असर
और परिंदे की लाश वहीं छोड़कर
आदमी हवा हो जाता है

कुछ लोगों में ग़ज़ब हुनर होता है
पल भर में कई साल झुठला देते हैं
फिर अनकहे की गाठें लगती रहती है
साल दर साल रिश्तों में और एक दिन
गाठें ही ले लेती है साथ की माला में
प्रेम के मनकों की जगह

प्रेम कभी पालतू कुत्ता नहीं हो पाता
जो समझ सके
आपका खीझकर चिल्लाना
आपका पुचकारना
आपका कोई भी आदेश
वह निरीह हिरन सी
पनैली आँखों वाला बनैला जीव है
आप उस पर चिल्लायेंगे
वह निरीहता से आपकी ओर ताकेगा
आप उसे समझदार समझ कर समझायेंगे
वह बैठ कर कान खुजायेगा
अंत में तंग आकर आप
उसे अपनी मौत मरने के लिए छोड़ जाएंगे

जब भी सर्दियाँ आती हैं मेरी इच्छा होती है
मैं सफ़ेद ध्रुवीय भालू में बदल जाऊँ
ऐसे सोऊँ की नामुराद सर्दियों के
ख़त्म होने पर ही मेरी नींद खुले
जब भी प्रेम दस्तक देता है द्वार पर
मैं चाहती हूँ मेरे कान बहरे हो जाएँ
कि सुन ही न सकूँ मैं इसके पक्ष में
दी जाने वाली कोई दलील
जो खूबसूरत शब्द हमसे बदला लेना चाहते हैं
वे हमारे छूट गए पिछले प्रेमियों के नाम बन जाते हैं

बाढ़ का पानी कोरी ज़मीं को डुबो कर लौट जाता है
धरती की देह पर फिर भी छूट जाते हैं तरलता के छोटे गह्वर
दुःख के कारणों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता
बस एक - सा पानी होता है जो सहोदरपने के नियम निबाहता
उम्र भर दुःखों के सब गह्वरों में झिलमिलाता रहता है

भय कई तरह के होते हैं, लेकिन आदमियों में
कमजोर पड़ जाने का भय सबसे बलवान होता है
अंकुरित हो सकने वाले सेहतमंद बीज को
प्रकृति कड़े से कड़े खोल में छिपाती है
बीज को सींच कर अपना हुनर बताया जा सकता है
उसपर हथौड़ा मारकर अपनी बेवकूफी साबित कर सकते हैं
यों भी तमाम बेवकूफ़ियों को
ताक़त मानकर ख़ुश होना इन दिनों चलन में है

रोना चाहिए अपने प्रेम के अवसान पर
जैसे हम किसी सम्बन्धी की मौत पर रोते है
वरना मन में जमा पानी ज़हरीला हो जाता है
फिर वहाँ जो भी उतरता है उसकी मौत हो जाती है
त्यक्त गहरे कुऐं में उतर रहे मजदूर की तरह

तुम्हारी याद भी अजीब शै है
 जब भी आती है कविता की शक़्ल में आती है

तुम किसी क्षण मरुस्थल थे. रेत का मरुस्थल नही. वह तो आंधियों की आवाजाही से आबाद भी रहता है. उसमे रेत पर फिसलता सा अक्सर दिख जाता है जीवन. तुम शीत का मरुस्थल थे जिसमे नीरवता का राग दिवस - रात्रि गूंजता था. तुमसे मिलने से पहले मैं समझती थी कि सिर्फ बारिश से भींगी और सींची गई धरती पर उगे घनघोर जंगल में ही कविता अपना मकान बनाना पसंद करती है, सिर्फ वहीं कविता अपनी आत्मा का सुख पाती है. तुमसे मिलकर मैंने जाना बर्फ के मरुस्थलों में भी निरंतर आकार लेता है सजीव लोक. शमशान सी फैली बर्फीली घाटियाँ भी कविता के लिए एकदम से अनुपयोगी नही होती. जीवन होता है वहाँ भी कफ़न सी सफ़ेद बर्फ़ानी चादर के अंदर सिकुड़ा और ठिठुरता हुआ. कुलबुलाते रंग - बिरंगे कीट - पतंगे न सही लेकिन सतह पर जमी बर्फ की पारभाषी परत के नीचे तरल में गुनगुनापन होड़ करता है जम जाने की निष्क्रियता के ख़िलाफ़. मछलियों के कोलाहल वहाँ भी भव्यता से मौजूद रहते हैं.

जिसे बस चुटकी भर दुःख मिला हो
वह उस ज़रा से दुःख को तम्बाकू की तरह
लुत्फ़ बढ़ाने के लिए बार - बार फेंटता मसलता है
जिसने असहनीय दुःख झेला हो वह टुकड़े भर सुख की स्मृतियों से
अनंत शताब्दियों तक हो रही दुःख की बरसात रोकता है
उस गरीब औरत की तरह जो जीवन भर शादी में मिली
चंद पोशाकों से हर त्यौहार में अपनी ग़रीबी छिपाती है
संतोष से अपना शौक़ श्रृंगार पूरा कर लेती है

सब कहाँ हो पाते हैं छायादार पेड़ों के भी साथी
कुछ उनकी छाल चीर कर उनमें डब्बे फंसा देते हैं
जिसमे वे पेड़ों का रक्त जमा करते हैं
दुनिया में दुःख के तमाशाई ही नहीं होते
यहाँ पीड़ा के कुछ सौदागर भी होते हैं

मैं प्रेम की राह पर सन्यासियों की तरह चलती हूँ
जीवन की राह पर मृत्यु द्वारा न्योते गए अतिथि की तरह

जिन गुफाओं में संग्रहित पानी तक
कभी रौशनी नहीं पहुँचती
वहाँ की मछलियों की आँखें नहीं होती
खूबसूरत जगहों में पैदा होने वाले कवि न भी हो पाएं
तब भी वे कविता से प्रेम कर बैठते हैं
अगर वे कवि हो ही जाएँ
तो दुनिया के सब बिंब उनकी कविता में
जंगल के चेहरों पर आने वाले अलग – अलग भावों के
अनुवाद में बदल जाते हैं


सोचती हूँ तुम्हारे मन के तल में जमा
काँच से पानी के वहाँ रखे नकार के पत्थरों में
क्या जमती होगी स्मृतियों की कोई हरी काई

मन के झिलमिलाते नमकीन सोते में हरापन कैसे कैद होगा
आखिर किस चोर दरवाजे से आती होगी वहाँ सूरज की ताज़ी रौशनी
जिसमें छलकती झिलमिलाती होंगी दबी इच्छाओं की चंचल मछलियाँ
बियाबान में टपकती बूंदों की लय क्या कोई संगीत बुन पाती होगी

नाज़ुक छुअन की सब स्मृतियाँ तरलता के चोर दरवाजे हैं
बीता प्रेम अगर तोड़ भी जाए तब भी उसकी झंकार
दूर तक पीछा करती है पुकारते और लुभाते हुए
जैसे आप रस्ते पर आगे बढ़ जाएँ तब भी
इस आशा में कि शायद आप लौट ही पड़ें
सड़क पर दुकान लगाये दुकानदार आपको आवाज देते रहते हैं

धरती पर पड़ी शुष्क पपड़ी जैसे भंगुर होते हैं मन के निषेध – पत्र
कोई हल्के नोक से चोट करे तो पपड़ी टूट कर
अंकुर बोने जितनी नमी की गुंजाईश मिल ही जाती है

अगली बार झिलमिलाते जल के लिए
कोई यात्री आपके पाषाण अवरोधों का ध्वंस करे
तो यह मानना भी बुरा नहीं कि कुछ चोटें अच्छी भी होती है
सूरज रौशनी के तेज़ सरकंडों से अँधेरे काटता है
बादलों की लबालब थैली भी आखिर
गर्म हवा का स्पर्श पाकर ही फटती है
जो सभ्यताएँ मुरझा जाती हैं
उन्हें आँख मटकाते बंजारे सरगर्मियाँ बख़्शते है
जंगलों की हरीतिमा अनावरण के
संकट के बावजूद किसी चित्रकार की राह देखती है

पत्थरों के अंदर बीज नहीं होते
लेकिन अगर वे बारिश में भींग गए हों
और वहाँ रोज धूप की जलन नहीं पहुँच रही हो
तब वहाँ भी उग ही आती है काई की कोई हरीतिमा