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"विद्यापति के दोहे / विद्यापति" के अवतरणों में अंतर

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घन-घन घनन घुँघरू कत बाजय, हन-हन कर तुअ काता।<br>
 
घन-घन घनन घुँघरू कत बाजय, हन-हन कर तुअ काता।<br>
 
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरू जनु माता।।<br><br>
 
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरू जनु माता।।<br><br>
 
--योगदानकर्ता: श्यामल सुमन
 

23:23, 27 नवम्बर 2006 का अवतरण

रचनाकार: विद्यापति

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जय जय भैरवि असुर-भयाउनि, पशुपति भामिनी माया।
सहज सुमति वर दिअ हे गोसाऊनि, अनुगति गति तुअ पाया।।

वासर रैन सवासन शोभित, चरण चन्द्रमणि चूडा।
कतओक दैत्य मारि मुख मेलल, कतओ उगलि कय कूडा।।

साँवर वरन नयन अनुरंजित, जलद जोग फूल कोका।
कट-कट विकट ओठ पुट पांडरि, लिधुर फेन उठि फोका।।

घन-घन घनन घुँघरू कत बाजय, हन-हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरू जनु माता।।