भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"परछाईं / तुम्हारे लिए / मधुप मोहता" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुप मोहता |अनुवादक= |संग्रह=तुम्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
14:21, 9 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
कभी-कभी, महज़ कभी-कभी
जब तेरे नक़्श मेरे ज़हन में
सुलगती आँच के धुएँ की तरह
उठे हैं तो मैंने चाहा है
तू मेरे आसपास, क़रीब कहीं
बैठी होती तो बेहतर होता।
याद आता है, एक बार तू जब
खड़ी हुई थी मेरी दीवार से सटकर
और चाँदनी में पिघलकर तेरी
परछाईं दीवार पे उतर आई थी
ऐसा लगता है, जैसे अब तक
वहीं बिछी हैं तेरी परछाईं
और जब तूने मेरे कान में
हौले से कहा था सुनो,
आज की शाम वहीं मिलना,
जहाँ कल बैठकर बातें की थीं,
मैं फिर आज वहीं बैठा हूँ।