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"भूल / शिशु पाल सिंह 'शिशु'" के अवतरणों में अंतर

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17:02, 15 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

ओ दिवाली के दीपक सा हँसने वाले,
किसकी हैकैसी शाम तुझे मालूम नहीं,
मालूम न होने की नादानी करने का,
होगा क्या दुष्परिणाम तुझे मालूम नहीं
(१)
वह देख कि काल कोठरी की घुटती सासें,
सिकुड़े फेफड़े समेटे, तुझे गुहार रहीं
फसली सम्वत्में भी प्यासे ही प्राण लिये,
फसलों की झुलसी शहजादियाँ पुकार रहीं
गुहराने वालों ने गुहराया बार- बार,
तेरा सम्बोधन अपनी संज्ञा भूल गया
ताजे झोकों के पवन सघन- घन सावन के,
सब तेरे हीहैं नाम तुझे मालूम नहीं
(२)
काहिल हो जाना जीवन की रथ- यात्रा से,
गति- शील जुलूसों से बाहर हो जाना है
तुझको तो श्रम की मुरली अधरों पर धरकर,
निर्माणों के स्वर को संगीत दिलाना है
वीरान मांग को सेंदुर से वंदन करना,
रेगिस्तानों में गंगा का चन्दन भरना
नन्दन वन से धरती का अभिनन्दन करना,
सब तेरे ही हैं काम तुझे मालूम नहीं
(३)
दस्तूर यहाँ का यह कि चाँद का शीश- फूल,
पहले तो हर यौवन को पहनाया जाये
भरमा- भरमा कर उसे नशीली राहों में,
फिर काजल के कुण्डों में नहलाया जाये
गोरे- काले पहलु वाले शाही सिक्के,
युग- युग से चलते आये हैं बाजारों में
इन सिक्को की ही शक्लों में हर किस्मत का,
लगता आया है दाम तुझे मालूम नहीं
(४)
वे उजड़े मन जिसके सितार हैं तार- तार,
जिनमें समाधियाँ बनीं सुनहले गानों की
वे नयन जो नासूर बने रहते निसि दिन,
जिनसे तस्वीरें बहीं पिघल अरमानों की
वे घर जिनमें संझवाती के भी लाले हैं,
रो रहीं सुभद्रा बहन दर्द के आंगन में
उजड़े मन, सूने नयन बिहूने घर आँगन,
तेरे हैं चारों धाम तुझे मालूम नहीं
(५)
वह पानीदार जवानी या कुछ और कहूँ,
जो छज्जों पर ही इन्द्र- धनुष सी मुसकाये
पावन प्रणाम सी पड़ी हुई इस पृथ्वी की,
तड़पन निहारकर जिसकी आँख न भर आये
वह देख कि रेगिस्तान तरसते गोपों पर,
जठरानल में जल रही मसीहा की कुटिया
सुने हैं वृन्दावन, नंदगांव, बरसाना,
भूखे हैं सेवाग्राम तुझे मालूम नहीं