"कौन हूँ 'मैं' / प्रीति 'अज्ञात'" के अवतरणों में अंतर
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मैं कौन हूँ
मेरा उठना-बैठना
खाना-पीना, रहन-सहन
बातचीत का तरीका
स्वभाव, शिक्षण, व्यवसाय
विवाह की उम्र
शिष्टाचार, जीवन-शैली
यहाँ तक कि
मौत के बाद की
विधि भी,
सब कुछ तय है
मेरे जन्म के समय से
पैदा होते ही तो लग जाता है
ठप्पा उपनाम का
जुड़ जाता है धर्म
अब नाम के साथ ही
और उसी पल हो जाती है
सारी राष्ट्रीयता एक तरफ
आस्था हो, न हो
विश्वास हो, न हो
पर समाज इंसान को जाने बिना ही
निर्धारित कर लेता है
उसके गुण-अवगुण
चस्पा कर दी जाती हैं धर्मानुसार
किसी भी अंजान व्यक्तित्व पर
कुछ सुनिश्चित मान्यताएँ
सीमाएँ लाँघने पर उठा करती हैं
एक साथ कई निगाहें
फिर समवेत स्वर में उसे
नास्तिक करार कर दिया जाता है,
उन्हीं लोगों के द्वारा
जिन्होंने संकुचित कर रखी है
अपनी विचारधारा
अपने धर्म की परिधि के भीतर ही
बुहारा करते हैं ये, नित 'अपना' आँगन
सँवारते हैं उसे
गीत गाते हैं मात्र उसी के हरदम
धर्म-विधान के नाम पर
हो-हल्ला मचाते
तथाकथित संस्कारी लोग
रख देते हैं अपनी भारतीयता
ऐसे मौकों पर, दूर कहीं कोने में
राष्ट्र-हित की बातें करने वालों ने
बो दिया है बीज
तुम्हें खुद ही तोड़ने का
और हो गये हैं सभी सिर्फ़
अपने-अपने धर्म के अधीन
तो फिर स्वतंत्र कौन है?
मैं कौन हूँ?
तुम कौन हो?
जो वाकई चाहते हो स्वतंत्रता
तो तोड़ना होगा सबसे पहले
धर्म और प्रांत का बंधन
ईश्वर एक ही है
मौजूद है, हर शहर, हर गली
हर चेहरे में,
हटा दो मुखौटा
और देखो
एक ही खुश्बू है
हर प्रदेश की मिट्टी की
हरेक घर का गुलाब
एक-सा ही महकता है
महसूस करना ही होगा
हमें ये अपनापन,
तभी पा सकेंगे,
दंगे-फ़साद, आगज़नी-तोड़फोड़
सारी अराजकताओं से दूर
हमारा अपना
एक स्वतंत्र भारत