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"तुम...हवा मधुमास की / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर
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छुआ तुमको
लगा जैसे धूप को सहला लिया
सच !
तुम्हारी देह सूरज की किरन
साँस जैसे
कोई कस्तूरी हिरन
तुम्हें देखा
लगा भीतर जल गया कोई दिया
साथ तुम थीं
नदी होकर हम बहे
खुशबुओं के द्वीप पर
दिन-भर रहे
घाट-घाटों
रात भर जैसे कोई अमरित पिया
पेड़ हैं हम
तुम... हवा मधुमास की
यह कथा है
फागुनी बू-बास की
खत्म होगी कल
अभी तो पर्व हमने है जिया